
बदन-ए-ग़र्द में, मैं जड़ पकड़ता जा रहा हूँ
मैं खुद किरदार की पहचान बनता जा रहा हूँ
हूँ असीर-ए-उम्र आलम का, ये जाँ छूटे, क़रार आये।
(बदन-ए-गर्द: मिट्टी का शरीर; असीर-ए-उम्र: उम्रकैदी; आलम: दुनिया)
होंठ सुलगे जो मेरे, आग ज़माने में लगी
फिर से इक उम्र, सवालात् बुझाने मे लगी
’उस’ नाम-ए-आतिश का ज़ुबाँ से मेरी, रिश्ता क्या है?
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मुझसे छुपा के, उंगलियाँ खोजती हैं तमाम शब
खुलती हैं हजार खि़ड़्कियाँ, पर उनमें तू नही
’गूगल’ को तेरे नाम का, चेहरा नही पता ।
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सोचा था, हर सवाल का लिखेंगे खूबसूरत जवाब
’शार्पनर’ से बार-बार नोकीला भी किया उसे
और छीलते-छीलते ही खत्म हो गयी ...जिंदगी !!
(चित्र- विक्टर वासरली-ऑप्टिकल आर्ट)