Friday, February 5, 2010

त्रिवेणीनुमा-२



बदन-ए-ग़र्द में, मैं जड़ पकड़ता जा रहा हूँ
मैं खुद किरदार की
पहचान बनता जा रहा हूँ

हूँ
असीर-ए-उम्र आलम का, ये जाँ छूटे, क़रार आये।

(बदन--गर्द: मिट्टी का शरीर; असीर--उम्र: उम्रकैदी; आलम: दुनिया)



*-*-*-*-*

होंठ सुलगे जो मेरे, आग ज़माने में लगी
फिर से इक उम्र, ‌सवालात्‌ बुझाने मे लगी

उसनाम--आतिश का ज़ुबाँ से मेरी, रिश्ता क्या है?


*-*-*-*-*

मुझसे छुपा के,
उंगलियाँ खोजती हैं तमाम शब
खुलती हैं हजार खि़ड़्कियाँ, पर उनमें तू नही

गूगलको तेरे नाम का, चेहरा नही पता

*-*-*-*-*

सोचा था, हर सवाल का लिखेंगे खूबसूरत जवाब
शार्पनरसे बार-बार नोकीला भी किया उसे

और
छीलते-छीलते ही खत्म हो गयी ...जिंदगी !!


(चित्र- विक्टर वासरली-ऑप्टिकल आर्ट)
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