नये जूते
शोरूम की चमचमाती विंडो मे बेचैन
उचकते हैं
उछलते हैं
आतुर देख लेने को
शीशे के पार की फ़ंतासी सी दुनिया।
नये जूते
दौड़ना चाहते हैं धड़-पड़
सूँघना चाहते हैं
सड़क के काले कोलतार की महक
वे नाप लेना चाहते हैं दुनिया
छोड़ देना चाहते हैं अपनी छाप
जमीं के हर अछूते कोने पर ।
बगावती हैं नये जूते
काट खाते हैं पैरों को भी
अगर पसंद ना आये तो
वे राजगद्दी पे सोना चाहते हैं
वो राजा के चेहरे को चखना चाहते हैं ।
नये जूतों को नही पसंद
भाषण, उबाऊ बहसें, बदसूरती,
उम्र की थकान
वे हिकारत से देखते हैं
कोने मे पड़े उधड़े, बदरंग
पुराने जूतों को
पुराने जूते
उधड़े, बदरंग
पड़े हुए कोने मे परित्यक्त किसी जोगी सरीखे
घिसे तलों, फटे चमड़े की बीच
देखते हैं नये जूतों की बेचैनी, हिकारत
मुँह घुमा लेते हैं
पुराने जूतों को मालूम है
शीशे के पार की दुनिया की फ़ंतासी की हकीकत
पुराने जूतों ने कदम-दर-कदम
नापी है पूरी दुनिया
उन्हे मालूम है समंदर की लहरों का खारापन
वो रेगिस्तान की तपती रेत संग झुलसे हैं
पहाड़ के उद्दंड पत्थरों से रगड़े हैं कंधे
भीगे हैं बारिश के मूसलाधार जंगल मे कितनी रात
तमाम रास्तों-दर्रों का भूगोल
नक्श है जूतों के जिस्म की झुर्रियों मे।
पुराने जूतों ने चखा है पैरों का नमकीन स्वाद
सफर का तमाम पसीना
अभी भी उधड़े अस्तरों मे दफ़्न है
पुराने जूते
हर मौसम मे पैरों के बदन पर
लिबास बन कर रहे हैं ।
पुराने जूतों ने लांघा है सारा हिमालय
अंटार्टिका की बर्फ़ के सीने को चूमा है।
पुराने जूतों ने लड़ी हैं तमाम जंगें
अफ़गानिस्तान, फ़िलिस्तीन, श्रीलंका, सूडान
अपने लिये नहीं
(दो बालिश्त जमीं काफ़ी थी उनके लिये)
पर उनका नाम किसी किताब मे नही लिखा गया
उन जूतों ने जीती हैं अनगिनत दौड़ें
जिनका खिताब पैरों के सर पे गया है
मंदिरों से बाहर ही रह गये हैं पुराने जूते हर बार।
वो जूते खड़े रहे हैं सियाचीन की हड्डी-गलाऊ सर्दी मे मुस्तैद
ताकि बरकरार रहे मुल्क के पाँवों की गर्मी
पुराने जूतों ने बनाये हैं राजमार्ग, अट्टालिकाएँ, मेट्रो-पथ
बसाये हैं शहर
उगायी हैं फ़सलें
पुराने जूतों ने पाँवों का पेट भरा है।
उन जूतों ने लाइब्रेरी की खुशबूदार
रंगीन किताबों से ज्यादा देखी है दुनिया
पुराने जूते खुद इतिहास हैं
बावजूद इसके कभी नही रखा जायेगा उनको
इतिहास की बुक-शेल्फ़ मे।
पुराने जूतों के लिये
आदमी एक जोड़ी पैर था
जिसके रास्ते की हर ठोकर को
उन्होने अपने सर लिया है
पुराने जूते भी नये थे कभी
बगावती
मगर अधीनता स्वीकार की पैरों की
भागते रहे ताउम्र
पैरों को सर पर उठाये।
पुराने जूते
देखते हैं नये जूतों की अधीरता, जुनून
मुस्कराते हैं
हो जाते हैं उदास
पता है उनको
कि नये जूते भी बिठा लेंगे पैरों से तालमेल
तुड़ा कर दाँत
सीख लेंगे पैरों के लिये जीना
फिर एक दिन
फेंक दिये जायेंगे
बदल देंगे पैर उन्हे
और नये जूतों के साथ।
शोरूम की चमचमाती विंडो मे बेचैन
उचकते हैं
उछलते हैं
आतुर देख लेने को
शीशे के पार की फ़ंतासी सी दुनिया।
नये जूते
दौड़ना चाहते हैं धड़-पड़
सूँघना चाहते हैं
सड़क के काले कोलतार की महक
वे नाप लेना चाहते हैं दुनिया
छोड़ देना चाहते हैं अपनी छाप
जमीं के हर अछूते कोने पर ।
बगावती हैं नये जूते
काट खाते हैं पैरों को भी
अगर पसंद ना आये तो
वे राजगद्दी पे सोना चाहते हैं
वो राजा के चेहरे को चखना चाहते हैं ।
नये जूतों को नही पसंद
भाषण, उबाऊ बहसें, बदसूरती,
उम्र की थकान
वे हिकारत से देखते हैं
कोने मे पड़े उधड़े, बदरंग
पुराने जूतों को
पुराने जूते
उधड़े, बदरंग
पड़े हुए कोने मे परित्यक्त किसी जोगी सरीखे
घिसे तलों, फटे चमड़े की बीच
देखते हैं नये जूतों की बेचैनी, हिकारत
मुँह घुमा लेते हैं
पुराने जूतों को मालूम है
शीशे के पार की दुनिया की फ़ंतासी की हकीकत
पुराने जूतों ने कदम-दर-कदम
नापी है पूरी दुनिया
उन्हे मालूम है समंदर की लहरों का खारापन
वो रेगिस्तान की तपती रेत संग झुलसे हैं
पहाड़ के उद्दंड पत्थरों से रगड़े हैं कंधे
भीगे हैं बारिश के मूसलाधार जंगल मे कितनी रात
तमाम रास्तों-दर्रों का भूगोल
नक्श है जूतों के जिस्म की झुर्रियों मे।
पुराने जूतों ने चखा है पैरों का नमकीन स्वाद
सफर का तमाम पसीना
अभी भी उधड़े अस्तरों मे दफ़्न है
पुराने जूते
हर मौसम मे पैरों के बदन पर
लिबास बन कर रहे हैं ।
पुराने जूतों ने लांघा है सारा हिमालय
अंटार्टिका की बर्फ़ के सीने को चूमा है।
पुराने जूतों ने लड़ी हैं तमाम जंगें
अफ़गानिस्तान, फ़िलिस्तीन, श्रीलंका, सूडान
अपने लिये नहीं
(दो बालिश्त जमीं काफ़ी थी उनके लिये)
पर उनका नाम किसी किताब मे नही लिखा गया
उन जूतों ने जीती हैं अनगिनत दौड़ें
जिनका खिताब पैरों के सर पे गया है
मंदिरों से बाहर ही रह गये हैं पुराने जूते हर बार।
वो जूते खड़े रहे हैं सियाचीन की हड्डी-गलाऊ सर्दी मे मुस्तैद
ताकि बरकरार रहे मुल्क के पाँवों की गर्मी
पुराने जूतों ने बनाये हैं राजमार्ग, अट्टालिकाएँ, मेट्रो-पथ
बसाये हैं शहर
उगायी हैं फ़सलें
पुराने जूतों ने पाँवों का पेट भरा है।
उन जूतों ने लाइब्रेरी की खुशबूदार
रंगीन किताबों से ज्यादा देखी है दुनिया
पुराने जूते खुद इतिहास हैं
बावजूद इसके कभी नही रखा जायेगा उनको
इतिहास की बुक-शेल्फ़ मे।
पुराने जूतों के लिये
आदमी एक जोड़ी पैर था
जिसके रास्ते की हर ठोकर को
उन्होने अपने सर लिया है
पुराने जूते भी नये थे कभी
बगावती
मगर अधीनता स्वीकार की पैरों की
भागते रहे ताउम्र
पैरों को सर पर उठाये।
पुराने जूते
देखते हैं नये जूतों की अधीरता, जुनून
मुस्कराते हैं
हो जाते हैं उदास
पता है उनको
कि नये जूते भी बिठा लेंगे पैरों से तालमेल
तुड़ा कर दाँत
सीख लेंगे पैरों के लिये जीना
फिर एक दिन
फेंक दिये जायेंगे
बदल देंगे पैर उन्हे
और नये जूतों के साथ।
(पेंटिंग: वान गॉग की अद्वितीय ’शूज’)
हाँ इस बार काफी पुराने थे ना...
ReplyDelete५ महीने पुराने !
बढ़िया रहा यह जूता प्रकरण भी ...इसी तरह पुराने इंसानों की गति भी होती है ....
ReplyDeletebahut khoob
ReplyDeleteनए-पुराने जूतों के बीच आपके साथ अनुभवों की सड़क पर नंगे पांव चलना अच्छा लगा।
ReplyDeleteनये -पुराने के बीच का द्वंद सनातन है। अब वो जूता हो या पीढी। शेष शब्द संयोजन का जो उपक्रम है वो अपूर्वजी की खासियत है। जूते चूंकि जमीन पर ही होते हैं इसलिये उन्हें काल-परिस्थितियों का सख्त अनुभव भी है। एक पूरी जिन्दगी होते हैं जूते। मुझे तो जीवन और जूतों में अधिक भेद मालूम नहीं पडता है। दोनों घिसते हैं। दोनों ही बदले जाते हैं..दोनों का अपना इतिहास होता है। दर दर की ठोकरें दोनों के भाग्य में बदी हैं।
ReplyDeleteमहीनों बाद???? पर महीनोंभर की प्यास बुझाते हुए....
वाह! बेहतरीन अभिव्यक्ति, बिलकुल नए अंदाज में! आपकी रचनाओं का मुझे इंतज़ार रहता है!
ReplyDeleteअधिक पुराने हुए तो घर में भी नहीं रह पाते पुराने जूते। तलाशते हैं अवसर नये जूते कि कब लाद-फांद कर लगा दें ठिकाने। नहीं जानते कि वे भी हो जायेंगे कभी पुराने।
ReplyDelete....अच्छा बिंब चुना है। देर से आये । इतने दिनो में तो कई इकट्ठे हो गये होंगे ! ऐसा तो नहीं कि नए प्रिंट मीडिया वाले उठा ले जाते हैं!
अपूर्व जी , जल्दबाजी में आपकी कविताओं को नहीं निपटा सकता , इनमें ठहरना चाहता हूँ और महीनों के ठहराव की ओर हूँ , पढ़कर एक सुकून लिए जा रहा हूँ , सलीके से आउंगा फिर...!
ReplyDeleteजूतों के बहानें जीवन का फलसफा,आभार भाई.
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत लिखा है अपूर्व
ReplyDeleteमैं एक बेहतर कविता लिखने के सपने को पूरा होते हुए देखना चाहता था लेकिन कभी नहीं लिख पाया कि ये सब व्यक्ति के भीतर ही होता है. वह रहट से अपने मन की अपनी भावनाओं को उलेड़ता हुआ कविता की फ़सल बोता है. सच में एक अच्छी कविता के लिए हमें कई मौसमों तक इंतज़ार करना होता है. एक मूर्धन्य लेखक चित्रकार की पेंटिंग के लिए इससे बेहतर कविता कुछ नहीं हो सकती. मैंने इसे कल रात को पढ़ा था. जो हल्का सुरूर था, उसे इस कविता ने बढ़ा दिया. कई, कई और कई बार पढने के लिए फिर से आऊंगा.
ReplyDeletearey wah sir...zamaane baad aaye ho aur kya aaye ho...superrrb !!!
ReplyDeletebohot hi khoobsurat nazm hai, kitni pecheedgi se har tajurbe ko buna hai, naye jooton ki bechaini, unka showroon window se uchakkar dekhna, puraane jooton ki shakl ka description aur wahan se unke tajurbon ki daastaan....haar baat kamaal ki likhi hai, bohot badhiya nazm :)
apoorv bhai...ek adbhut prateek uthaya hai aapne.... aur ye prateek dunia kee bahut sari cheezon ka pratinidhitv kar rahe hain... jooton kee zabaani kahi gayi ye kahani adbhut hai... kuch jagahon par to kavita ka ek drishy roop bhi saamne paida ho gaya...sacchi.... :)
ReplyDeleteapoorv jawab nahi aapka bhi..jin par kisi ka dhyan bhi na jaye,unki to aapne gatha keh di..soch ki ye bariki sikhni padegi aapse..good job :)
ReplyDeleteनये और पुराने का संघर्ष ... अनुभव का अंतर ... सतत चलता द्वंद ... पीडियों के द्वंद को इंगित कर रहा है ... पुराने जूतों के माध्यम से इतिहास की खुरदरी वीथियों का भ्रमण अंत तक एक दस्तावेज़ बन जाता है ... आपने रचना का अंत बहुत ही सार्थक हक़ीकत की दाहजीज़ पे किया है ...
ReplyDeleteबहुत समय बाद आपको पढ़ने को मिला है अपूर्व जी .... आपकी शैली और अनूठा विषय हमेशा ही आपको पढ़ने को आकर्षित करता है ....
उफ्फ्फ , पहली दफ़ा अपूर्व को पढ़ा था दर्पण के कहने पर ! और दूसरी तीसरी बार ख़ुद के कहने पर , अमूमन मुझे ऐसा लगता था कि इतनी लम्बी कवितायेँ बंधे नहीं रख सकती और ना ही कविता का रस स्पष्ट रूप से परिलक्षित होगा मगर इन जोड़ी जूतों ने कमाल कर दिया जिस तरह से व्यंग , को इनके साथ दिखाया है कमाल है अपूर्व ! दर्पण को उसके संदूक से जनता हूँ और अब तुम्हे इन जूतों से ! शायद लोग भी ऐसे ही जानेंगे ! बहुत दूर तक ये कविता ख़ुद भी जाएगी और तुम्हे भी ले जाएगी ! तुम्हे ख़ुद नहीं पता तुमने क्या लिख दिया ! बहुत बधाई १
ReplyDeleteअर्श
अजीब सी फिलिंग के दौरान पहली दफा इसे पढ़ा था .डेढ़ साल की बच्ची अपने दाहिने पूरे जले हाथ की ड्रेसिंग करने आई थी... ..ओर मेरा प्लास्टिक सर्जन दोस्त उसकी ड्रेसिंग कर रहा था ....उसकी रोती हुई आवाज....ओर छोटे हाथ पर पूरा ड्रेसिंग से भरा पट्टियों का एक प्लास्टर ........
ReplyDeleteतब .कविता को मुल्तवी कर दिया था मैंने......
एक यथार्थ की दुनिया से दूसरे यथार्थ में जाने में थोडा वक़्त लगता है .........
तुम्हारी आमद बड़ा वक़्त लेती है .....शायद मसरूफियत इस उम्र में भी अपनी बुजुर्गाना जिम्मेवारियो संग रोज बिन बुलाये धमक जाती है .....दाई ओर सुभाष बाबू का चित्र देखकर अच्छा लगा..२३ तारीख .........
रिश्ते नाते भी अब जूतों की तरह है.....सबका एक निश्चित वक़्त ...किसी को पोलिश करने या मेंटेन करने की फ़िक्र नहीं ......
लिखते रहो दोस्त.....तुम्हारी आमद हमेशा भली लगती है ......
बहुत ही बढ़िया, ज़िंदगी का सच कह दिया इन पंक्क्तियों ने, यूँ भी दांत तुडवाने के बाद ही कहीं तालमेल बैठता है.
ReplyDeleteमनोज
बेहद खूबसूरत कविता,
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई .......
मामूली और साधारण में कवि वह सब देख लेता है जो और नहीं देख पाते और यह कविता इस बात का सम्पूर्ण उदाहरण है...
ReplyDeleteएक काल-खंड से दुसरे युग तक
ReplyDeleteअनंत सफ़र ,,,,
एक मनोस्थिति से अलग मानस-पटल तक
ढेर-सी कुछ अनकही ,,,,
जीवन भर के संघर्ष की लम्बी दास्ताँ ,,,,
सफलताओं और असफलताओं के बीच
कहीं झूलता इंसान ,,,,
और सम्पूर्ण जीवन-दर्शन ....
एक कृति में ये सब कुछ होना
काव्य और कवि
दोनों की दक्षता को रेखांकित करता है
हाँ ! प्रतीक के रूप में
जूते अपनी जगह सब कहते ही गए !
अभिवादन स्वीकारें .
सोचा तो था कि वापस आओगे तो धमाका करोगे, किंतु इतना अलग-सा धमाका होगा ये न सोचा था। बड़ी देर से ठिठका हुआ हूँ दफ़्तन के इस देर से खुले ताजे पन्ने पर...कविता पढ़ने के बाद कई पल सोचा कि क्या सोच के लिखा होगा अपूर्व ने इसे। किस तरह के भाव उठे होंगे कविता के पहले ड्राफ्ट में? कोई ड्राफ्ट था भी कि नहीं? वान गाग की पेंटिंग पहले देखी या कविता लिखने के बाद पेंटिंग की तलाश की गयी? ....और उम्र के इस कमसिन से मोड़ पर इन पुराने जूतों का ऐसा दर्द की अपने पोर-पोर में भी जिसे पढ़कर दर्द होने लगे, कैसे महसूस किया? ...सवाल और भी उठे हैं, जिसके लिये फिर से वापस आता हूँ...शायद डा० साब जैसी कोई और टिप्पणी पढ़ने को मिले वापसी में। अमरेन्द्र भाई अभी कुछ और लिखेंगे और शायद सागर भी आये...दर्पण फिर से आयेगा...शायद डिंपल भी।...शेष सवाल तब उठाऊंगा, इनलोगों की टिप्पणियों को पढ़ने के बाद।
ReplyDeleteकविता शुरू से लेकर एक जिग्यासा{माफ करना, ये "ग्य" को सही तरीके से टाइप करना अभी तक नहीं आया है} उठाती है किसी थ्रिलर की तरह...और वो सस्पेंस कायम रहता है अंत तक। आता हूँ...
बहुत जबरदस्त!!
ReplyDeleteकविताओं इस रचनाकाल में जब 'वाक्य विन्यास' एक्सट्रीमिस्ट हो चले हैं...
ReplyDeleteऔर जहाँ 'ठीक इस वक्त', 'सबसे खतरनाक','सबसे डरावनी', जैसे शब्द सबसे ज़्यादा :-) पाए जा रहे हैं.
(नहीं मैं ये नहीं कहता ये गलत है, इन्फेक्ट मैं तो ये मानता आया था की कविता कल्पना की सबसे ऊँची छलांग होती है. कहते है की दारु पीने वालों को एनेसथिसिया का असर कम होता है इसलिए हेवी डोज़ चाहिए.)
बहरहाल...
इस दौर में जहाँ पे, क्रांतियों के आविष्कार के लिए सत्ता को दोषी ठहराना ज़रूरी है,
इस युग विशेष में, जब हर गरीब कविताओं का नायक है और हर अमीर खलनायक.
आपका एक पक्ष को नायक बनाते हुए भी दूसरे पक्ष को खलनायक साबित ना करना इस कविता की सबसे बड़ी सफलता कही जायेगी. एक प्रयोग जिसमें मैं कभी सफल नहीं हुआ. (याद है ना 'केंट्स राज्य?')
आपने मुझे सोचने ये पे भी मजबूर किया की यदि भगत सिंह लम्बे जीते तो क्या वो गांधीवादी हो जाते, आपकी इस कविता ने ये सोच भी दी की क्या, वो जो क्रांतियाँ करते हैं (बावजूद इसके की सभी संसाधन उनके खिलाफ हैं) यदि उनके हाथ में सत्ता आ जाए तो क्या वो और क्रूर शासक नहीं साबित होंगे?
सवाल और भी हैं. पर अच्छी बात ये है कि फ़ोन लाइन खुली हुई है. :-D
सोच रहा था धूमिल कि एक कविता डालूँगा टिपियाते हुए... पर आप मेरी ही कुछ कविता की 'कतरनों' से काम चलायें...
रेफरेंस ढूँढने कि कोशिश ना करें. पर निकली उन 'उजबक' बहसों से ही है.
गणतंत्र दिवस कि शुभकामनाएं....
दुःख: तुम्हारे बलात्कार हो जाने का नहीं है,
दुःख है कि तुमने शर्म के मारे कपड़े पहन लिए.
और यूँ नाजायज़ आत्म सम्मान का गर्भपात करवा लिया...
या उसे पैदा होते ही मंदिर के बाहर छोड़ दिया,
तुम्हारा जाया सबसे पवित्र जगह...
...जूतों के बीच, बेवकूफों !
बहरहाल...
मैं,
रोक के पकड़ा सकता हूँ तुम्हारा गिरा हुआ (अरे गलती गिर गया था ! थैंक्यू भाई सा'ब. )
'आत्मसमान'
लेकिन मैं जानता हूँ कि,
आप ऑफिस में लेट हुए तो बॉस आपकी 'ले लेगा'.
और, 'पाँच सो चौतीस' की 'फ्रीक्वेंसी',
इस रूट में बहुत कम है.
भीड़,
'बाली' के बल की तरह होती है,
जो तुम्हारे विरोधों से बढ़ता जाता है.
तुम छुप के उसका वध नहीं कर सकते.
क्यूंकि रामायण में कोई 'कृष्ण' नहीं था.
मुझे अफ़सोस नहीं है तुम्हारे कायर होने पर,
मुझे अफ़सोस है तुम्हारे सामाजिक होने पर.
और ये बात मैं चिल्ला के कह सकता हूँ,
किसी भी मॉल के जीने में चढ़कर,
लेकिन मैं जानता हूँ की बिग बाज़ार की सेल,
४ दिन ही लगती है.
गणतंत्र दिवस से ठीक पहले.
इन सब के आलावा मुझे एक निजी अफ़सोस भी रहा था,
मैं चाहता तो उस दिन सब कुछ कर सकता था....
पर यकीन कीजिये इस 'बिल्ली' ने 'नैतिकता' का खम्बा ढूंढ लिया.
हाँ ज़्यादातर कुत्ते शराब पीकर, गोष्ठियां मूतते हैं उसमें.
ये बात बड़े बड़े अक्षरों में लिखी है तुमको पढ़ने के लिए...
लेकिन,
मुझे मालूम है कि डी. यू. की कट ऑफ लिस्ट पिछली बार से भी ज़्यादा कट थ्रोट होने जा रही है.
*************************************
चैरिटी घर से शुरू होती है,
और आत्म-विश्लेषण 'कविता' के पहले अक्षर से,
par मुझे ज़्यादा चिंता नहीं है अब,
चिंता बस इतनी है कि,
कविता अच्छी नहीं बन पड़ी...
क्यूंकि 'भूख' और 'लालच' कि राईमिंग नहीं कर पा रहा मैं,
'भूख' का तो फ़िर भी विकल्प है.
'लालच' का नहीं....
...कविता में भी नहीं.
******************************
ज़िन्दगी,
एक प्लास्टिक कविता...
बिना आई.एम. ई. आई. नम्बर के.
****************************
@darpan...
ReplyDeleteदुःख: तुम्हारे बलात्कार हो जाने का नहीं है,
दुःख है कि तुमने शर्म के मारे कपड़े पहन लिए.
और यूँ नाजायज़ आत्म सम्मान का गर्भपात करवा लिया...
या उसे पैदा होते ही मंदिर के बाहर छोड़ दिया,
तुम्हारा जाया सबसे पवित्र जगह...
...जूतों के बीच, बेवकूफों !
बहरहाल...
मैं,
रोक के पकड़ा सकता हूँ तुम्हारा गिरा हुआ (अरे गलती गिर गया था ! थैंक्यू भाई सा'ब. )
'आत्मसमान'
सारी बातो के बीच ये "नीट " सा मिल गया ...अभी भी गला दुखता है
@दर्पण
ReplyDeleteएक सामान्य सी पोस्ट पर इतनी बेहतरीन कविता का हैवी डोज यूँ जाया नही करते..इसे आपके ब्लॉग पर देखने का इंतजार रहेगा..और पूरी!!
बोलना तो हमेशा से मुश्किल रहा है मेरे लिए और आप तो हमेशा 'शंट' कर देते हैं भाई...
ReplyDeleteअद्वितीय ......
ReplyDeleteनये जूते जैसे नया नया चलना सीखा कोई बच्चा नन्हें कदमो से लम्बे डग भरता है जैसे कुछ ही कदमो में दुनिया नाप लेगा..जल्दी में और ज्यादा चलने की कोशिश में ठोकर पे ठोकर खाता है.
ReplyDeleteबगावती जूते तो दुनिया फतह कर लेना चाहते है.उम्र गुजार चुकी पीढ़ी के अनुभवों की खूबसूरती उन्हें बदसूरती नज़र आती है..पहाड़ रेगिस्तान हर रस्ता नापा है अपने अनुभवों के क़दमों से जिससे नयी पीढी को कुछ लेना देना नहीं..
(दो बालिश्त जमीं काफ़ी थी उनके लिये)फिर भी लड़ते रहे उम्र भर ओरों के लिए..जवानों,किसानों,मजदूरों के पैरो में पड़े बसाते रहे,बचाते रहे. बनाते रहे दुनिया नयी,देखते ही देखते नाप ली पूरी दुनिया जूतों ने जीत ली हर जंग,पर कही किसी किताब में ज़िक्र नही उनका...आखरी मंजिल तक पहुंचते -पहुंचते उधड़ चुके थे ..बदरंग हो चुके थे :(
जब आप कहते है (मंदिरों से बाहर ही रह गये हैं पुराने जूते हर बार) तब मैंने समझा और सोचा भी कि शायद आप ने ये कहा कि पुराने जूते कोई चुराता नहीं और मंदिर के बाहर पड़े रहते है :(
फिर पढ़ने पे लगा कि इश्वर मंदिर रूप है परम सत्य जिसमें जब आत्मा ने विलीन होना है तो इस शरीर से अलग हो के ही..पांवों का आत्मा रूप और जूतों का शरीर रूप एकदम अनूठे और अछूते बिम्ब लगे..
कविता जितनी ख़ूबसूरती से आरम्भ में चलती है अंत तक पहुंचते-पहुंचते अपना संतुलन बना के नहीं रख सकी.शायद एक एडी टूट गयी...;-)
PS :बढ़िया अभिव्यक्ति पे जूतों को बधाई ;-)
lambi kavitaayen kabhi main poori nahi padh payi...magar ise poora padha aur do baar padha. samajh gaye na...main kya kahna chahti hoon.
ReplyDelete्ना जाने कैसे अब तक इस ब्लोग से दूर थी…………नये और पुराने का तुलनात्मक अंतर बखूबी उकेरा है जूतों के माध्यम से अब चाहे सोच हो , पीढी हो या इंसान …………बेजोड रचना सोचने को मजबूर करती है।
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर एक बार कविता पढ़ने दूसरी बार टिप्पणी सुख लेने जरूर आना चाहिए..तीसरी और अंतिम बार तब जब लगे कि कविता समझ में आ गई।
ReplyDeleteअच्छा लगा इतने दिनों बाद तुम्हारी किसी नई कविता को पढ़ना। जूते ही क्या जिंदगी में जो नया आता है उसकी अधीरता उच्छृंखलता वक्त और जीवन के थपेड़ों से मिलते अनुभव से मलिन हो ही जाती है। खुद मानव जीवन जन्म से मरण तक इसी चक्र से गुजरता है।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत कविता,
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई|
वाकई इस कविता में एक आतंरिक लय है जिसके कारण ये कहीं से भी लंबी या पढ़ने में बोझिल नहीं लगती.राजस्थानी में जूतों को'पगरखी'भी कहा जाता है.पैरों को सम्हालने वाली जूतियाँ.और कवि बहुत सुंदरता से इस प्राचीन अनुभव को कविता में कह जाता है .विराट यात्राओं की उतनी ही विराट कथा और बीच बीच में समकालीन को लेकर हलके से कही गयी गहरी टिप्पणियां कविता को इन दिनों के कुछ सबसे शानदार अनुभवों में से एक बनाती है.
ReplyDeleteऐसी ही कवितायें साहित्य को जिंदा रखे हुए हैं.. इतनी उत्कृष्ट कविता के बारे में और कुछ लिखने की कूबत नहीं. बस कवि को साष्टांग प्रणाम करता हूँ...
ReplyDeleteयह नए या पुराने जूतों (मन) के मानसिकता कि जंग के बायस है. जिन्हें जैसी हवा में सांस मिली और उनकी बुनकरी हुई वो बड़े जिम्मेदार हैं...
ReplyDeleteछोड़ देना चाहते हैं अपनी छाप
जमीं के हर अछूते कोने पर --- कोलंबस !!!
अभी चांद, मंगल तो हो आये हैं.
कविता कई जगह गिरती है और फिर बड़े वेग से उठती है, जूतों के बहाने और समाजवाद और पूंजीवाद के चक्कर भी लगाती है, फलक बड़ा है इसका, सही कविता का यही लक्ष्य होता है.
जूतों के बहाने रिश्तों कि भी पड़ताल हुई है और हाशिये पर के बुजुर्ग भी
-----
एक विनती सर कि यह छह छह महीने निष्क्रिय ना हो जाया करें... और हमारी ध्रिष्ट्ता/हिमाकत माफ़ हो
मुझे लगता है बड़े अच्छे शब्दों में संजय व्यास जी ने सबकुछ सारगर्भित शब्दों में कह दिया है.
ReplyDeleteपुराने जूते खुद इतिहास हैं
ReplyDeleteबावजूद इसके कभी नही रखा जायेगा उनको
इतिहास की बुक-शेल्फ़ मे।
कमाल है अपूर्व. आप सचमुच इतना अच्छा लिखते हैं, कि कई बार ईर्ष्या होने लगती है.
फिर से आया था। चंद टिप्पणियों ने लाजवाब किया। वैसे मेरे सवाल जरूर अनुत्तरित रह गये...फिर भी एक किसी भूरे बालों वाली लड़की ने कविता की पृष्ठ-भूमि का रहस्य खोल ही दिया कुछ दिनों पहले फोन पर।
ReplyDeleteअभी किसी पत्रिका में, मार्क करके रखी थी तुम्हारे लिये, किंतु ढ़ेर सारी पत्रिकाओं की भीड़ में कौन-सी थी और कहाँ रखी है, मिल नहीं पा रही...एक पुराने चप्पलों पर लिखी कविता पढ़ी\ तुम्हारी याद आयी। यूं उसके बिम्ब बिल्कुल ही जुदा थे।
जूतों का स्नेह, जूतों का दर्द, जूतों का रख-रखाव यकीन मानो एक फौजी से ज्यादा कोई नहीं समझ सकता। लेकिन देखो ना, कभी ख्याल तक नहीं आया इनपर लिखने का। आज ही फोन पर उन भूरे बालों को कह रहा था कि बहुत कोशिश करता हूँ तुम्हारी-दर्पण-सागर की तरह कोई कविता लिखूं...नहीं हो पाता।
इतना तो बता दो कि वान गाग की पेंटिंग पहले देखी या कविता का ड्राफ्ट पहले लिखा गया???
बेहतरीन!
ReplyDeleteapake blog ke baare main ek news paper se pata chala, par dekhane ke baad laga ki prashansa ke shabd shat pratishat sahi the.
ReplyDeleteaap bahut hi behatarin lekhak hain.
पूरा का पूरा जीवन दर्शन है यह... जूतों के बहाने!
ReplyDeleteek behtreen kavita -----bdhai ...
ReplyDelete45. Hadd hi ho gayi !
ReplyDeleteजूतों पर इतनी गहन-गंभीर रचना पहली बार पढ़ रही हूँ .
ReplyDeleteजूतों पर इतनी गहन-गंभीर रचना पहली बार पढ़ रही हूँ .
ReplyDelete