अब जबकि तुम
नही हो मेरी जिंदगी मे शामिल
तुम्हारा न होना
उतना ही शामिल होता गया है
मेरी जिंदगी मे
हर सुबह
घर से बुहार कर फेंकता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों की धूल
बंद खिड़की-दरवाजों वाले घर मे
न जाने कहाँ से आ जाती है इतनी धूल
हर रात
बदरंग दीवारों पर लगे माज़ी के जालों में
उलझे हुए फ़ड़फ़ड़ाते हैं
कुछ खुशगवार, गुलाबी दिन
बचता हूँ उधर देखने से
आँखे उलझ जाने का डर रहता है.
बारिश मे भीगी तुम्हारे साथ की कुछ शामें
फ़ैला देता हूँ बेखुदी की अलगनी पर
वक्त की धूप मे सूखने के लिये
मगर मसरूफ़ियत का सूरज ढ़लने के बाद भी
हर बार शामें बचा लेती हैं थोड़ी सी नमी
थोड़ा सा सावन
चुपचाप छुपा देती हैं
आँखों की सूनी कोरों मे
कमरे मे
पैरों मे पहाड़ बाँध कर बैठी है
गुजरे मौसम की भारी हवा
खोल देता हूँ हँसी की खोखली खिड़्कियाँ, दरवाजे
नये मौसमों के अनमने रोशनदान
मगर धक्का मारने पर भी
टस-मस नही होती उदास गंध
और दरवाजे का आवारा कोना
जो तुम्हारे बहके आँचल के गले से
किसी जिगरी दोस्त जैसा लिपट जाता था
अब चिड़चिड़ा सा हो गया है.
जबर्दस्ती करने पर भी नही खुलता है
चाय-पत्ती का गुस्सैल मर्तबान
तुम्हारे कोमल स्पर्श ने
कितना जिद्दी बना दिया है उसे
(थक कर अब बाहर ही पी आता हूँ चाय)
आइना अब मुझसे नजरें नही मिलाता
रूखे बालों से महीनों रूठा रहता है कंघा
प्यासे गमले अब मेरे हाथों पानी नही पीते
बिस्तर को मुझसे तमाम शिकवे हैं
टूटी पड़ी नींदों को मुझसे सैकड़ों गिले हैं
रो-रो कर सिंक मे ही सो जाते हैं
चाय के थके हुए कप
और ऊन की विवस्त्र ठिठुरती सलाइयाँ
अब सर्दियों मे भी आपस मे नही लड़ती
हाँ अब खिड़की से उचक कर अंदर नही झाँकती
दिसंबर की शाम की शरारती धूप
लान की मुरझाई घास पर
औंधे मुँह उदास पड़ी रहती है
अब मेरे चेहरे पर
बिना तस्वीर के सूने फ़्रेम सी
टंगी रहती हैं आँखें
और चेहरे की नम दीवारें
दिन के शिकारी नाखूनों की खराशों के
दर्द से दरकती रहती हैं
पड़ा रहता हूँ रात भर बिस्तर पर
किसी सलवट सा
नजरों से सारी रात छत के अंधेरे को खुरचता
और बाहर खिड़की से सट कर
बादल का कोई बिछ्ड़ गया टुकड़ा
रात भर अकेला रोता रहता है
एक-एक कर मिटाता जाता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों के पग-चिह्न
और तुम उतना ही समाती जाती हो
घर के डी एन ए में
किताबों ने पन्नों के बीच छुपा रखा है
तुम्हारा स्निग्ध स्पर्श
चादरों ने सहेज रखी है तुम्हारी सपनीली महक
आइने ने संजो रखा है बिंदी का लाल निशान
और तकिये ने बचा कर रखे हैं
आँसुओं के गर्म दाग
और घर जो तुम्हारी हँसी के घुँघरु पहन
खनकता फिरता था
वहाँ अब अपरिचित उदासी
अस्त-व्यस्त कपड़ों के बीच छुप कर
हफ़्तों बेजार सोती रहती है
ड्राअर मे पड़े अधबुने स्वेटर का अधूरापन
अब हमेशा के लिये दाखिल हो गया है
मेरी जिंदगी मे
हाँ
अब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे
(प्रस्तुत रचना आदरणीय गुलज़ार सा’ब को समर्पित है )
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteइस कविता में शब्द-सौंदर्य इतना ज़बरदस्त है कि बार-बार पढ़े अधूरेपन के भाव को भी पाठक मंत्रमुग्ध हो पढ़ता है.
ReplyDeleteप्रारंभ की पंक्तियों में, 'मेरी जिंदगी मे शामिल' हटा कर भी, कविता जस की तस रहती है जैसा लगता है।
आमीर खान के फिल्म की तरह इस ब्लॉग में कविता देर से आती है मगर जबरदस्त हिट रहती है।
-बधाई।
क्या बात है अपूर्व और गुलज़ार साहेब को सही समर्पित किया है. बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteगुलज़ार सा'ब तो याद आये ही. उनके ढेर सारे गाने भी पर पता नहीं क्यूँ ये गाना भी याद आ गया :
ReplyDeletehttp://www.youtube.com/watch?v=vjmrmtHp4lM
गुलज़ार सा'ब और इस कविता के लिए 'दफ्तन' आना पड़ेगा.
हाँ
ReplyDeleteअब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे
बेहतरीन रचना है .....
अपूर्व जी धीरे धीरे पढ़ता गया और पूरी तरह डूब गया सुंदर अभिव्यक्ति...वैसे भी अपूर्व जी यह पहली रचना नही इससे पहले भी आपकी कई रचनाएँ पढ़ चुका हूँ..आप बेहतरीन बनाने में कोई कसर नही छोड़ते है...इस बढ़िया कविता के लिए हार्दिक बधाई
ReplyDeleteहाँ
ReplyDeleteअब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे
bahut bahut badhai
shekhar kumawat
पैरो में पहाड़..
ReplyDeleteक्या बात कही है अपूर्व
गुलज़ार साहब यदि इसे पढ़ेंगे तो वे भी खुश हो जाएगें, वाह कितने बेहतरीन शब्द चुने हैं..."
ReplyDeleteek baar to laga jaise bahut achche shohar ki bahut pyari biwi mayke chali gayee hai...khair mazak se pare ek baat bahut sundar kavita jiski har pankti ahsaas se chalakti, doobti,khilti aur mahakti hui.
ReplyDeleteएकबारगी तो यूँ लगा जैसे उन्होंने ही लिखा है पर बीच में स्मृतियों, विवस्त्र, स्निग्ध स्पर्श, अपरिचित जैसे शब्द इसे अपूर्व का लिखा बताते हैं ... सही भी है आपने आपको (अपनी शैली में ) किसी को डेडीकेट करना. लाइन बहुत बुरी तरह से उलझी हुई हैं (सामान्य अर्थों में नहीं ) जैसी की जरुरत है वैसी जो कविता के ग्रेवी को और टाईट बना रहे हैं... खोजती, मिस करती और बेहाल सा दिल साफ़ झलक रहा है. बहुत तबियत से लिखी गयी बहुत अच्छी रचना.
ReplyDeleteसारे पैराग्राफ सहेज कर रखने वाले हैं... पर यह सब भाव और बातें और परेशां कर देती हैं ... वो शेर है ना
वो ना आयें तो दिल में खलिश सी होती है
वो आ जाएँ तो खलिश और जवान होती है...
Aproov,
ReplyDeletesabse pahle ek anurodh hai ki tum meri pahli tippani ko delete kar dena...
kabhi hota hai na ki comments aapki rachnayon ko naya aayaam dete hain. Kush aur Sagar do aise hi log hain jo wo sab dhoondh nikalte hain jo ek sahi salaamt dimaag rakhne wala insaan nahi dhoondh sakta... kash mere paas in dono ke jaise buddhi hoti :)
ye upmayen, ye bimb bade anokhe hain..
"बदरंग दीवारों पर लगे माज़ी के जालों में
उलझे हुए फ़ड़फ़ड़ाते हैं
कुछ खुशगवार, गुलाबी दिन
बचता हूँ उधर देखने से
आँखे उलझ जाने का डर रहता है.
बारिश मे भीगी तुम्हारे साथ की कुछ शामें
फ़ैला देता हूँ बेखुदी की अलगनी पर
वक्त की धूप मे सूखने के लिये
मगर मसरूफ़ियत का सूरज ढ़लने के बाद भी
हर बार शामें बचा लेती हैं थोड़ी सी नमी
थोड़ा सा सावन
चुपचाप छुपा देती हैं
आँखों की सूनी कोरों मे"
goya ne aankhon mein savan chupa rakhe hain aur log kahte hain ki baarish nahi ho rahi :P
"और दरवाजे का आवारा कोना
जो तुम्हारे बहके आँचल के गले से
किसी जिगरी दोस्त जैसा लिपट जाता था
अब चिड़चिड़ा सा हो गया है.
जबर्दस्ती करने पर भी नही खुलता है
चाय-पत्ती का गुस्सैल मर्तबान
तुम्हारे कोमल स्पर्श ने
कितना जिद्दी बना दिया है उसे
(थक कर अब बाहर ही पी आता हूँ चाय)"
uff.. is dard ko ek chai peene wala hi samjh sakta hai.. chalni kar diya hai dost..
"चाय के थके हुए कप
और ऊन की विवस्त्र ठिठुरती सलाइयाँ
अब सर्दियों मे भी आपस मे नही लड़ती"
yaar ghazab likhte ho.. awesome piece of writing..
chalo Sagar se sahmat ho lete hain ki saare hi paragraph sanjokar rakhne wale hain.. warna quote karte karte thak jaonga.. :)
मैं मंत्रमुग्ध हो गया भाई जान । सच कहूँ मैं कविता में जीने लग गया था । अंतिम पंक्ति के साथ ही एहसास हुआ कि मैं कविता में था ।
ReplyDeleteमेरी पढ़ी गयी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक है ये .
हर सुबह
ReplyDeleteघर से बुहार कर फेंकता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों की धूल
बंद खिड़की-दरवाजों वाले घर मे
न जाने कहाँ से आ जाती है इतनी धूल
हर रात
स्मृतियों की धूल.....बहुत सुन्दर.
एक लाईन क विशेष जिक्र करना चाहुंगा.....
ReplyDeleteतुम्हारा न होना
उतना ही शामिल होता गया है
मेरी जिंदगी मे.....
बाकी कविता केवल इसी को पूरा करती है. सत्य वचन
और हाँ.. पहले क्रोमोसोम,फिर गुण्सुत्र अब डी एन ए . स्कूली दिन याद आ रहे हँ.....
सत्य
हर बार शामें बचा लेती हैं थोड़ी सी नमी
ReplyDeleteथोड़ा सा सावन
चुपचाप छुपा देती हैं
आँखों की सूनी कोरों मे
हाँ
अब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे
बहुत खूब
खोल देता हूँ हँसी की खोखली खिड़्कियाँ, दरवाजे
ReplyDeleteनये मौसमों के अनमने रोशनदान
मगर धक्का मारने पर भी
टस-मस नही होती उदास गंध
और दरवाजे का आवारा कोना
जो तुम्हारे बहके आँचल के गले से
किसी जिगरी दोस्त जैसा लिपट जाता था
अब चिड़चिड़ा सा हो गया है.
जबर्दस्ती करने पर भी नही खुलता है
चाय-पत्ती का गुस्सैल मर्तबान
तुम्हारे कोमल स्पर्श ने
कितना जिद्दी बना दिया है उसे
(थक कर अब बाहर ही पी आता हूँ चाय)
जानते हो यहाँ तुम सबसे बेहतर हो...... एक लम्बी कविता के साथ फ्लो में रहना सबसे मुश्किल काम है ...क्यूंकि उसका अकविता का ओर मुड़ने का खतरा बना रहता है
हाँ अब खिड़की से उचक कर अंदर नही झाँकती
दिसंबर की शाम की शरारती धूप
लान की मुरझाई घास पर
औंधे मुँह उदास पड़ी रहती है
यहाँ ये किसी आज़ाद नज़्म का हिस्सा लगती है ....शायद मुझे उर्दू के लफ्ज़ ज्यादा खीचते है ..रेदर अपील करते है ....इसलिए भी...
नजरों से सारी रात छत के अंधेरे को खुरचता
और बाहर खिड़की से सट कर
बादल का कोई बिछ्ड़ गया टुकड़ा
रात भर अकेला रोता रहता है
ये हिस्सा मुझे बहुत पसंद है......
ड्राअर मे पड़े अधबुने स्वेटर का अधूरापन
अब हमेशा के लिये दाखिल हो गया है
मेरी जिंदगी मे
हाँ
अब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे
ओर यहाँ तुम आखिरी लाइन लिखकर कही भीतर तक दाखिल हो गए हो ..इन दिनों वैसे भी गुलज़ार को कई बार की तरह दोबारा .तीसरी बार .न जाने कौन सी बार पढ़ रहा हूँ.....सुन रहा हूँ .....
पुनश्च :सबसे जरूरी बात मेरी फेवरेट नज़्म को याद दिलाती है ..तेरे उतारे हुए दिन अब भी टंगे है लॉन में अब तक.....
सुबह पढ़ कर दफ्तर गया था अभी लौटा तो सीधे यहाँ पहुँच गया..
ReplyDeleteयह इस कविता का चुम्बकीय आकर्षण ही है. इस में एक खास बात यह भी है की उत्तरोत्तर उत्सुकता बढती जाती है...शब्द-सौंदर्य, उपमाएं, ..हर पंक्ति में अच्छी और अच्छी होती चली गयीं हैं.
..बारिश मे भीगी तुम्हारे साथ की कुछ शामें
फ़ैला देता हूँ बेखुदी की अलगनी पर
वक्त की धूप मे सूखने के लिये...
पढ़कर पाठक वाह-वाह कहना चाहता है की तभी
..पैरों मे पहाड़ ..
.....ऊन की विवस्त्र ठिठुरती सलाइयाँ
अब सर्दियों मे भी आपस मे नही लड़ती..जैसे वाक्य पढ़कर अवाक हो जाता है.
विरह का महाकाव्य लिख दिया है आपने.
ReplyDeleteऔर बिम्ब तो इतने हैं कि पाठक चौंकते चौंकते थक जाए...
सागर ने और अनुराग जी ने सब कुछ कह दिया है.
गुलज़ार साब भी आ के कुछ कह जाते, तो मजा आ जाता...
hats off!
ReplyDeleteआता हूँ अभी कई कई बार.
देख रही हूँ कितनी बारीकियों से आपने एक-एक दृश्य को पिन-अप किया है ....
ReplyDelete@ " जो तुम्हारे बहके आँचल के गले से
किसी जिगरी दोस्त जैसा लिपट जाता था
अब चिड़चिड़ा सा हो गया है...."
@"चाय-पत्ती का गुस्सैल मर्तबान..."
@ "और ऊन की विवस्त्र ठिठुरती सलाइयाँ
अब सर्दियों मे भी आपस मे नही लड़ती..."
@ "किताबों ने पन्नों के बीच छुपा रखा है
तुम्हारा स्निग्ध स्पर्श..."
बिना विरह वेदना के ऐसा लिख पाना असंभव है अपूर्व जी ...
पर ये कमाल आपने किया है....
डा अनुराग की बात से सहमत हूँ ....
इतनी लम्बी कविता को आखिरी दम तक रोचक बनाये रखना बहुत कड़ी मेहनत लेता है
आपने हर छंद में वेदना के स्वर गूँथ कर रख दिए हैं .....
यह कविता आपके नाम को सार्थक करती है .....
( अंत में इक निजी सवाल ..." क्या यह कविता महज़ इक कवि की सोच है या वास्तविकता ...?)
निशब्द कर देने वाली रचना है ..सही में अपूर्व नाम को सार्थक करती हुई
ReplyDeleteमुद्दत के बाद आपको पढ़ा अपूर्व जी ... रचना की शिद्दत और महक से आपकी शैली का आभास हो रहा है .... सच है किसी के जाने के बाद ... उसके होने का एहसास ज़्यादा सताता है .... हर कोने से, हर लम्हे से, खुद से जुड़ी पूरी कायनात उनकी कहानी कहती है और आपने बहुत लाजवाब अंदाज़ से उन तमाम लम्हात की लेंडस्केपिंग की है काग़ज़ के पन्नों पर .....बहुत देर तक खामोश कर गयी यह रचना ....
ReplyDeleteज़रा जल्दी जल्दी आया करें ... आपका इंतेज़ार रहता है ...
एक नहीं कई बार पढ़ा इस नज़्म को....जादुई असर करती है! कुछ लाइने तो बस कमाल की हैं!एकदम गुल्जारिश ही है....अपनी पसंद की पंक्तियाँ नीचे लिख रही हूँ!
ReplyDeleteकमरे मे
पैरों मे पहाड़ बाँध कर बैठी है
गुजरे मौसम की भारी हवा
नजरों से सारी रात छत के अंधेरे को खुरचता
और बाहर खिड़की से सट कर
बादल का कोई बिछ्ड़ गया टुकड़ा
रात भर अकेला रोता रहता है
ड्राअर मे पड़े अधबुने स्वेटर का अधूरापन
अब हमेशा के लिये दाखिल हो गया है
मेरी जिंदगी मे
हाँ
अब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे
... ... ...
ReplyDeleteकिसी शायर की पंक्ति से शुरू करता हूँ (जिसकी याद आपकी कविता पढ़ते-पढ़ते आयी)---
''मुद्दतें गुजरीं तेरी याद भी आयी न हमें ,
और हम भूल गए हों तुझे,ऐसा भी नहीं !''
... ... ...
कविता कह जाने की कला और लिख जाने की कला में मुझे सदैव अंतर दिखा है , मुझे
कह जाने की कला ज्यादा प्रिय रही है , लिख जाना तो जैसे कागजों के लिए लगता है !
ध्वनि की सार्थकता तो शब्द - बिहंग के उड़ने में हैं , कंठ - प्रति - कंठ ! कोयल की लिखी
हुई 'कूक' से बेहतर सौन्दर्य है कोयल की सुनी हुई कूक में , हरे पत्तों और शाखों के
श्याम-पुष्प से झांकता सुर- पराग !
आपके यहाँ कह जाने की कला का दर्शन होता है ! सदैव लगता है कि उर्दू-अदब की 'कह
जाने की कला' का बखूबी परिचय आपकी कविताओं में है ! कहना न होगा कि दुरूह होती
(जहां कविता का अ-संप्रेषणीय निजाग्रह में पर्यवसान होता हो ) छंद-मुक्त कविता में
'कहने की कला' को बनाये रखना वाकई श्लाघ्य है ! यह अपूर्व-सधाव श्लाघ्य है और
रक्षणीय भी ! जागरूक तो आपको ही रहना होगा उसके लिए !
आपको पढ़ते हुए लगता ही नहीं कि मैं कविता पढ़ रहा हूँ , लगता है जैसे कविता मुझे
पढ़ रही है , कोई भार नहीं दिलो-दिमाग पर ! यह सहजता अन्यत्र मिलती ही नहीं
मुझे ब्लॉग पर , इसीलिये मित्रों से यमक-वाक्य में कहता रहता हूँ - 'अपूर्व अपूर्व हैं ' !
छीजने न देना इसे !
---------------- कविता पर बात करने फिर आउंगा !
टिप्पणी पूरी गुलज़ाराना है:
ReplyDeletetitle: तुम्हारे जाने के बाद...
http://www.youtube.com/watch?v=chc0pIGTho4
अब जबकि तुम
नही हो मेरी जिंदगी मे शामिल
तुम्हारा न होना
उतना ही शामिल होता गया है
मेरी जिंदगी मे...
हर सुबह
घर से बुहार कर फेंकता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों की धूल
बंद खिड़की-दरवाजों वाले घर मे
न जाने कहाँ से आ जाती है इतनी धूल
हर रात
बदरंग दीवारों पर लगे माज़ी के जालों में
उलझे हुए फ़ड़फ़ड़ाते हैं
कुछ खुशगवार, गुलाबी दिन
http://www.youtube.com/watch?v=j-ltEkrbDN4&feature=related
&
http://www.youtube.com/watch?v=Y9T7ZEi6MFQ&feature=related
कमरे मे
पैरों मे पहाड़ बाँध कर बैठी है
गुजरे मौसम की भारी हवा
खोल देता हूँ हँसी की खोखली खिड़्कियाँ, दरवाजे
नये मौसमों के अनमने रोशनदान
मगर धक्का मारने पर भी
टस-मस नही होती उदास गंध
और दरवाजे का आवारा कोना
जो तुम्हारे बहके आँचल के गले से
किसी जिगरी दोस्त जैसा लिपट जाता था
अब चिड़चिड़ा सा हो गया है.
जबर्दस्ती करने पर भी नही खुलता है
चाय-पत्ती का गुस्सैल मर्तबान
तुम्हारे कोमल स्पर्श ने
कितना जिद्दी बना दिया है उसे
(थक कर अब बाहर ही पी आता हूँ चाय)
http://www.youtube.com/watch?v=VT7ceKVyJjI
&
http://www.youtube.com/watch?v=eC92n0wXs8k
एक-एक कर मिटाता जाता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों के पग-चिह्न
और तुम उतना ही समाती जाती हो
घर के डी एन ए में
किताबों ने पन्नों के बीच छुपा रखा है
तुम्हारा स्निग्ध स्पर्श
चादरों ने सहेज रखी है तुम्हारी सपनीली महक
आइने ने संजो रखा है बिंदी का लाल निशान
और तकिये ने बचा कर रखे हैं
आँसुओं के गर्म दाग
http://www.youtube.com/watch?v=9mjFCidDpcY
&
http://www.youtube.com/watch?v=YMQzIew4NH8
और घर जो तुम्हारी हँसी के घुँघरु पहन
खनकता फिरता था
वहाँ अब अपरिचित उदासी
अस्त-व्यस्त कपड़ों के बीच छुप कर
हफ़्तों बेजार सोती रहती है
http://www.youtube.com/watch?v=7Pqr0TJneyo
ड्राअर मे पड़े अधबुने स्वेटर का अधूरापन
अब हमेशा के लिये दाखिल हो गया है
मेरी जिंदगी मे
http://www.youtube.com/watch?v=j2GRFh2iPDI
हाँ
अब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे
http://www.youtube.com/watch?v=uS-pTxAm3J8
और आपकी कविता के लिए जाते जाते:
http://www.youtube.com/watch?v=9zSPpyrfkK8
(भावार्थ : बहुत बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति !! बधाई.)
बहुत ही सुन्दरता और गहराई से लिखी मनोदशा ।
ReplyDelete@ हीर जी
ReplyDeleteअपनी टिप्पणी मे डॉ अनुराग जी ने अपनी जिस फ़ेवरिट नज़्म का जिक्र किया है मेरी यह तथाकथित रचना गुलज़ार सा’ब की उसी नज़्म को तकरीबन ५७५ बार पीने से पैदा हैंगओवर की पैदाइश है. अपनी उस अद्वितीय नज़्म ’तेरे उतारे हुए दिन’ मे गुलज़ार साब ने विरह के जिस अतीतजीवी मगर शाश्वत भाव को बेहद संयत और मानवीय कलेवर दिया है, यह रचना उसी ’फ़ीलिंग’ के और नजदीकी ऐंगल्स को देखने की कोशिश मात्र है. और ’घर’ नामक रिश्ते के उस हिस्से की ’रिएक्शन’ को दर्ज करने की कोशिश, जो जिंदगियों के इस साझेपन और उससे पैदा खालीपन का सबसे मूक मगर मुखर गवाह होता है. बाकी सब मेरी अनगढ़ काल्पनिक-काव्य-उड़ान. खुशी इस बात की है कि यह रचना अपनी तासीर के मुआमले मे गुलज़ार सा’ब की उस लाजवाब नज़्म का पासंग-मात्र भी नही ठहरती.
हाँ पोस्ट अगर लंबी और और दोहरावपन का शिकार है तो इसका कसूर मेरा नही है. पोस्ट को एडिट करने के लिये इसमे शामिल कुछ चीजें हटानी चाही, मगर इस पर घर की बाकी ’चीजों’ ने नज़्म के खिलाफ़ बगावत कर दी, सो हार कर सबको ही पूरा ’स्पेस’ देना मेरी मजबूरी बन गया.
तकरीबन ५७५ बार...?????
ReplyDeleteसही लिखा है न ......???
नमन है आपके इस कृत्य पर .....!!
तुम्हारे जाने के बाद..
ReplyDeleteपहले तो ये गाना याद आया...
न जाने क्यूँ,किसी के जाने के बाद,
आती है याद,
छोटी छोटी सी बात..
अब जबकि तुम
नही हो मेरी जिंदगी मे शामिल
तुम्हारा न होना
उतना ही शामिल होता गया है
मेरी जिंदगी मे
...................
हाँ
अब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे..
एक लम्बी नज़्म अक्सर विचार बोझिल समझ कर नहीं पढ़ी जाती,(personal opinion)आपकी यह नज्म प्रतीक और कल्पना की परम्परा में एक स्वस्थ नज्म है.अक्सर पाठक प्रतीक और बिम्ब चाहता है.ऐसी नज्म जिसे पढ़कर उसे लगे की उसने ही लिखी है या उसने क्यूँ नहीं लिखी.विवरण और बखान कितने ही सटीक और महत्वपूरण हो उन्हें छोड़ देना चाहेगा (again personal opinion) .
प्रेयसी की याद कोई नया काव्य विषय नहीं है.लेकिन इन सुंदर उपमाओ और अपनी विशेष वर्णन शैली से आपने इसे बिलकुल नया बल्कि अछूता बना दिया है.
व्याकरण सीखने वाले विधार्थियो के लिए यह कविता उपयुक्त है,कविता में से उन्हें १० -१० विशेषण और विशेष्य चुनने को कहा जाये तो उन्होंने २०-२० चुन देने है :-)
कुछ और याद आया..
तेरे बारे में जब सोचा नहीं था.
मैं तन्हा था मगर इतना नहीं था.
बढ़िया अभिवियक्ति बधाई.
आप हमेशा विषय के पूरे विस्तार में लिखते हैं । लगभग सभी आयामों में जाकर भावों को पकड कर बिम्बों में बॉंध देते हैं । बहुत ही धैर्य के साथ । इस कविता को पढना स्मृति (घावों) को हरा करने जैसा है । बहुत बहुत ओरिजिनल लिखा है । कविता पूरी तरह समा लेती है पढने वाले को, खुद में ।
ReplyDeleteएक-एक कर मिटाता जाता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों के पग-चिह्न
और तुम उतना ही समाती जाती हो
घर के डी एन ए में
किताबों ने पन्नों के बीच छुपा रखा है
तुम्हारा स्निग्ध स्पर्श
चादरों ने सहेज रखी है तुम्हारी सपनीली महक
आइने ने संजो रखा है बिंदी का लाल निशान
और तकिये ने बचा कर रखे हैं
आँसुओं के गर्म दाग
--------
---------
kya Kahoon dost.. is kavita aur aaj ke ek ghatnakram ki wajah se andar tak kuchh toootta sa mahsoos kar raha hoon.. takleefon ke manobhavon ko bakhoobi paint kiya tumne yahan par. pata nahin Gulzar saab ko samarpit karne ka kamaaal hai ya tumhari hamesha wali wahi qalam lekin kavita apne aap me ek milestone si hai.
ReplyDeleteअति उत्तम और सर्बोतम की लहरो पर, अपनी काव्य रूपी नाव पर सवार, अपूर्व जी आप हर उस किनारे को छूते हुए आगे बढ्ते हैं जहाँ समान्य द्रष्टि नही पहुंचती ।
ReplyDeleteआप शब्दो के जादूगर है । और जो कह्ते हैं उसका अर्थ और मर्म दोनो जानते है, यही गुण आप की रचनाओ को मधुर और रसपूर्ण बनाता है ।
आप की ये रचना ज़िंदगी के खालीपन का सजीव
प्रस्तुतिकरण करती है, परंतु निराशा का भाव नही रखती । बस किसी के अब ना होने का अहसास है और परिस्थितिया है । मैं यहाँ किसी पंक्ति विशेष का उल्लेख नही करूंगा क्योकि पूरी कविता ही मुझे पसंद आई, हर पंक्ति एक दूसरे की पूरक है ।
और मेरी ओर से रचना की पूर्णता पर ढेरो बधाईया ।
विरह के पीछे अगाध प्रेम छुपा है कविता में और इन पंक्तियों में कविता की जान!
ReplyDeleteहाँ
अब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे
अनुराग जी बहुत कुछ कह चुके हैं - सार्थक और सारगर्भित !
ReplyDeleteदर्पण भाई ने आपने स्तर पर यू-ट्यूबीय प्रस्तुति करके मुझको
भी गुलज़ार को समझने में सहयोग किया ! यही वजह है कि
कविता तक पहुँचने की कोशिश कर रहा हूँ ( यह बात उस लिहाज से
कह रहा हूँ कि आप ने इसे गुलज़ार को समर्पित किया है ) |
अलग से क्या कहूँ ?
निर्मल वर्मा की कहानी पढ़ जाने के बाद पात्रों का नाम भी भूल जाता
है ( प्रो. नामवर जी ने ऐसा कहा है , निर्मल जी की कहानी कला को
बताते हुए ) बस एक मीठा स्वाद रह जाता है आत्मा को गुदगुदाता
हुआ ! ठीक आपकी कविता को पढ़ते हुए भी ऐसा ही लगता है कि
चीजें इतनी इकट्ठा हो गयीं कि कैसे अलग करके टीपें ! पर की-बोर्ड
भी तो उँगलियों को उलाहना देता है ! सो टीपना पड़ता है , नहीं तो ,
सच तो यह है कि चरम आस्वाद परम मौन का वल्कल धारण कर
लेता है ! फिर क्या कहना ! कबीर भी तो कहे हैं ---
'' हीरा पायो गाँठ गठियायो , बार बार फिर क्यों खोले / मन मस्त
हुआ फिर क्यों बोले '' !
................
आपकी इस कविता की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वियोग की स्थितियों
को रखने में कहीं नायक हिरासता या टूटता नहीं है , उसमें जीवनेच्छा
भी उतनी है जितनी सृजनेच्छा !
अक्सर वियोग चित्रण रौरव की हद में दाखिल हो जाता है जो आपके
यहाँ नहीं दिख रहा है , और यह कविता को मजबूत कर रहा है !
अलग अलग बिम्बों को कहाँ तक छांट कर लिखूं .. सब तो दावा
करने लगते हैं इकट्ठा आने का ! सबमें चारूत्व है ! सधाव है !
अंततः वही खंड रखूंगा जो कविता के आदि-अंत में सम्पुट की तरह
आया है , जो अन्विति का केंद्र है , ध्रुव-टेक है ---
'' हाँ
अब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे ''
--------- यहाँ कितना आत्मविश्वास है ! कितनी जिजीविषा है ! मुग्ध हूँ इसपर !
Waaah waah...mazi ki nasen kis qadar pakadi hain ki haal ke khun ki raftar badh gayi hai...behad achhi rachna...dil khush ho gaya..
ReplyDeleteसच कहूँ तो मैंने दिन के उजाले में और शाम के समय डूबते हुए सायों के छितराते जा रहे वजूद के बीच इस कविता का उपभोग किया है. कविता पहली नज़र में बंदरगाह पर नारंगियों के इंतजार जैसी लगी फिर से इस पढ़ा तो इसमें सत्तर के दशक की विचलित करने वाली रूमानियत मेरे आस पास बिखरती हुई दिखाई दी. इसमें अवरोह नहीं है जैसे पहाड़ से एक धार निर्मल जल उतरता हो. आपके पास ज़िन्दगी के रंगों की किताब बड़ी और जिल्द वाली है जिसमे शब्द अभी भी बिल्कुल ताजा है.
ReplyDeleteशिकारी नाखून की खराश चेहरों पर इस कदर तारी है कि बादलों का तनहा रोना भी नाकाफी है, समय के हरे घावों पर कविता जो मलहम रखती है वही इसे गुलज़ार को समर्पित करने के योग्य बनाता है. धूल आलूदा ख्वाबों से चमकते रोशनदानों में ये कविता किसी मुकम्मल सूरज की तरह है. दोस्त मुझे हंसी की खोखली खिड़कियों से आते स्वर किसी भीगे कोड़े से लगे जैसे याद सिर्फ बेरहम हुआ करती है. वह अपना कोई एक सिरा थाम कर नहीं रखने देती. छा जाती है हर ओर...
देरी से आया नहीं हूँ बस कमेन्ट देरी से कर रहा हूँ.
बहुत अच्छा लगा यह कविता पढ़कर! टिप्पणियां पढ़कर और अच्छा लगा। पहली बार में लगा कि इस एक कविता में कई कवितायें शामिल हैं।
ReplyDeleteअब जबकि तुम
नही हो मेरी जिंदगी मे शामिल
तुम्हारा न होना
उतना ही शामिल होता गया है
मेरी जिंदगी मे
हर सुबह
घर से बुहार कर फेंकता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों की धूल
बंद खिड़की-दरवाजों वाले घर मे
न जाने कहाँ से आ जाती है इतनी धूल
तुम्हारी स्मृतियों के पग-चिह्न
और तुम उतना ही समाती जाती हो
घर के डी एन ए में
किताबों ने पन्नों के बीच छुपा रखा है
तुम्हारा स्निग्ध स्पर्श
चादरों ने सहेज रखी है तुम्हारी सपनीली महक
आइने ने संजो रखा है बिंदी का लाल निशान
और तकिये ने बचा कर रखे हैं
आँसुओं के गर्म दाग
और घर जो तुम्हारी हँसी के घुँघरु पहन
खनकता फिरता था
वहाँ अब अपरिचित उदासी
अस्त-व्यस्त कपड़ों के बीच छुप कर
हफ़्तों बेजार सोती रहती है
ड्राअर मे पड़े अधबुने स्वेटर का अधूरापन
अब हमेशा के लिये दाखिल हो गया है
मेरी जिंदगी मे
हाँ
अब तुम बाकी नही हो
मेरी जिंदगी मे
मगर मेरी अधूरी जिंदगी
बाकी रह गयी है
तुममे
भी अपने आप में एक सुन्दर कविता है। लेकिन जैसा तुमने लिखा भी कि जब तुमने इसको छांटना चाहा तब बाकी अंश ने विद्रोह कर दिया। इसका कोई इलाज नहीं हो सकता एक संवेदनशील कवि के पास।
बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर। इतनी सुन्दर कविता रचने के लिये बधाई!
अब जबकि तुम
ReplyDeleteनही हो मेरी जिंदगी मे शामिल
तुम्हारा न होना
उतना ही शामिल होता गया है
मेरी जिंदगी मे prakrati AAKAASH yaani khaali pan kese chhod sakati he bhalaa.../ kavita behatar tarike se isi ek 'sach' me samaai hui he. guljaar saaheb ko samarpit..badhhiyaa he.
लाजवाब लिखा आपने...मन को भायी ये रचना.
ReplyDelete______________
पाखी की दुनिया में- 'जब अख़बार में हुई पाखी की चर्चा'
Kya kahoon yaar!
ReplyDeleteSabhi ne sab kuchh keh diya hai!
Pehli bar aaya hoon, phir aane ki tamanna rakhta hoon!
Ek main hoon, jo apne foohad andaz mein virah celebrate karta hai, aur ek tum ho jo shabdon ka khoobsoorat jaal bunta hai...
Umda! Apratim! Achook!
हाँ अब खिड़की से उचक कर अंदर नही झाँकती
ReplyDeleteदिसंबर की शाम की शरारती धूप
लान की मुरझाई घास पर
औंधे मुँह उदास पड़ी रहती है
mann ke tahkhano ko kholker us udaasi ko jo padh le, uske shabd bade anmol hote hain, bhawnaaon se bhare hote hain
किताबों ने पन्नों के बीच छुपा रखा है
ReplyDeleteतुम्हारा स्निग्ध स्पर्श
चादरों ने सहेज रखी है तुम्हारी सपनीली महक
आइने ने संजो रखा है बिंदी का लाल निशान
और तकिये ने बचा कर रखे हैं
आँसुओं के गर्म दाग
har shabd dusre ke sath khilta hai... bahut hi khubsurat peshkash
aaj pahli baar apko padha..baahut baar aana hoga :)
apurav ..pahli baar aapka blog dekha aur ye blog meri list mein shumar bhi ho gaya..bahut bahut sundar likha hai..
ReplyDeletevaise 'dafatan" ka matlab kya hai?
ReplyDeleteसाहिब उत्तर दिया जाये
ReplyDeleteकविता तो खैर खूबसूरत है ही, लेकिन हर बार की तरह इस बार जलन न सिर्फ तुम्हारी लेखनी से हो रहा है बल्कि आयी हुई तमाम टिप्पणियों से भी। शायद ही मेरी किसी रचना को इतनी गहराई, इतने अपनेपन से पढ़ा गया हो इस ब्लौग में कभी। एक लेखक को इससे ज्यादा और क्या चाहिये।
ReplyDeleteविरह-अगन को शीतलता प्रदान करती हुई ये कविता हम जैसे हर पाठकों के लिये किसी एलेक्जिर या ऐसे ही दवा से कम नहीं- यकीन जानो।
"कैसे लिख लेते हो" पूछना बेमानी है। कुछ बिम्ब जो चुराने के काबिल लगे:-
बेखुदी की अलगनी
मसरूफ़ियत का सूरज
पैरों मे पहाड़ बाँधे मौसम की भारी हवा
चाय-पत्ती का गुस्सैल मर्तबान
दिन के शिकारी नाखूनों की खराशें
किसी का समाते जाना घर के डी एन ए में
ड्राअर मे पड़े अधबुने स्वेटर का अधूरापन
....उफ़्फ़ ! ...उफ़्फ़्फ़!! ... उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़ !!!
fir aayaa hu,
ReplyDeleteहर सुबह
घर से बुहार कर फेंकता हूँ
तुम्हारी स्मृतियों की धूल
बंद खिड़की-दरवाजों वाले घर मे
न जाने कहाँ से आ जाती है इतनी धूल..
ynha, smartiyo ko bhi band kar rakhaa he bhale hi buaar di gai ho..kitane bhi band kyo na ho darvaaje, khidakiyaa..aakhir unaki daraare band kanhaa hoti he.., bahut khoob likhaa he, sirf yahi nahi..rachna me kai jagah mujhe bahut khoob kahnaa padhha he,
बारिश मे भीगी तुम्हारे साथ की कुछ शामें
फ़ैला देता हूँ बेखुदी की अलगनी पर
वक्त की धूप मे सूखने के लिये
मगर मसरूफ़ियत का सूरज ढ़लने के बाद भी
हर बार शामें बचा लेती हैं थोड़ी सी नमी
थोड़ा सा सावन
चुपचाप छुपा देती हैं
आँखों की सूनी कोरों मे,, inhe hi daraar samjhiye..shabd sanyojan me ustaad he aap aour yahi mazaa deta he paathako ko,
कमरे मे
पैरों मे पहाड़ बाँध कर बैठी है
गुजरे मौसम की भारी हवा
खोल देता हूँ हँसी की खोखली खिड़्कियाँ, दरवाजे
नये मौसमों के अनमने रोशनदान
aahaa...mujhe daraar mil gai jnhaa se smartiyo ki dhool aa jayaa karati he buaarne ke baavzood.
प्रिय अपूर्व ...तुम्हारी ये बयानगी बेहद बेहद खूबसूरत है एक ईमानदार वक्त में जिया गया सच, चंद ख्वाब जो तुम्हारी मेज की दराज में पड़े हेँ उनमे से कई ख्वाब जो सर उठाते हेँ ..उन्ही में से स्मृतियों की धूल घर से बुहार कर फ़ेंक देने पर भी अपनी धांस छोड़ देते हेँ ..ये शब्द अशोक वाजपई और गुलजार जी के नजदीक पहुंचाते हेँ ,अच्छा लगता है इन्हें पढ़कर जैसे,कमरे में पैरोमें पहाड़ बांधकर बैठी है गुजरे मौसम की भारी हवा ...इस मायूसी -उदासी के खिलाफ ये एक सुघड़ और कलातमक बिम्ब है यहाँ मुझे लीलाधर जुगडी जी याद आतें हेँ एक बात और तुम्हारी कविता की सहज मुखरता आकृष्ट करती है ----प्रेम को प्रेम में डूबने उतराने पर मजबूर भी कि सब कुछ टूट कर फिर-फिर बने क्योंकि में मानती हूँ जीवन का उसकी गति का ,शब्दों का उनकी आवाजो का, मनुष्य के सुख अवसाद का एक द्रश्य ,एक रंग में गहराना ही यक़ीनन सच्ची बात और एक शुभ संकेत है जहाँ से उसे आगे जाना होगा और इस कविता में,सच कहती हूँ पहली नजर में दिखाई पड़ने वाली स्थूलता के भीतर सूक्ष्मता और भावों कि सघनता मौजूद है ..बिना किसी गुमान के और तुम्हारी इसी पोस्ट कि बात नहीं अन्य में भी यही बात है जिनके लिए बधाई-मिठाई सुन्दर खूबसूरत सब कुछ छोटे हेँ ...अंत में एक बात और बाहर भीतर का अन्धेरा जीत लिया तो जग जीत लिया ...कविता और जिन्दगी में इस ताकत के साथ जीना बेहद जरूरी होता है जो अनायास नहीं भीतर से आता है ...आमीन
ReplyDelete@ विधु जी,
ReplyDeleteसत्यवचन, परतें खोलने का शुक्रिया... एक अच्छा पाठक ही बता सकता यह सब... मैं अशोक वाजपई को भूल रहा था... यहाँ उनकी झलक अक्सर मिलती है. लीलाधर जी को नहीं पढ़ा है इसलिए कुछ कह नहीं सकता..
एक बात और किसी रचना पर ऐसी विवेचना हो ख़ुशी मिश्रित इर्ष्या होना लाज़मी है.
यह त्रासदी ही है कि तुम हमेशा मेरे ब्लॉग पर आ जाते हो और मैं अपनी काहिलियत और आलस की आगोश का मोह त्याग नहीं पाता.
ReplyDeleteऐसी कविताएँ लिखोगे तो चल चुका दुनिया का काम. बन्दा कविता से बाहर ही निकल नहीं पाएगा. एक बार, २ बार... ५ बार तो मुझे पढना पढ़ा. तब कहीं जा कर सही सही समझ आई.
हम जैसों के लिए कुछ हल्का सा भी लिखा करो यार.
तो अब्बब्बब ! सब कुछ में अधूरापन है !
ReplyDeleteऔर इस अधूरेपन का गवाह है यह लम्बी कविता
एक फिल्म सरीखा है.
आज तो टिप्पणियाँ पढ़ने ही आया था..विधु जी की टिप्पणी पढ़ कर खुशी हुई.
ReplyDelete..वाह!
kya baat hai....bahut hi achi post hai
ReplyDeletehttp://liberalflorence.blogspot.com/
http://sparkledaroma.blogspot.com/
itni badi kavita hone ke babjud.......pathak ko samete rakhti hai.......bich me chhod nahi paya.......:)
ReplyDeleteek aadarsh kavita......:)
bahut kuchh seekhne ko mil sakta hai...aapke posts se....:)
dhanyawad!!
kabhi hamare blog pe aayen!!
मैं गौरव सोलंकी के ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी (टिप्पणी क्या राजनीति फिल्म की समीक्षा ही थी) पढ़ते हुए आपके ब्लॉग पर चला आया...बेहतरीन टिप्पणी थी आपकी....राजनीति पर अब तक पढ़ी समीक्षाओं में बेहतर...आपके ब्लॉग पर पहली दफा आया हूं....और एक खूबसूरत नज़्म भी टकरा गई....लगता है अब आना-जाना लगा रहेगा...
ReplyDeleteBeautiful creation !
ReplyDeleteअरे भाई आ भी जाओ गर्मी ख़त्म होने को है ' एस्टीवेशन' से बाहर निकलो.. :)
ReplyDeleteड्राअर मे पड़े अधबुने स्वेटर का अधूरापन
ReplyDeleteअब हमेशा के लिये दाखिल हो गया है
मेरी जिंदगी मे
wapas aaiye bhai... waise har roj aata hun sirf ise hi padhne, der aaye to bhi koi shikwa nahi.
:)
इतनी सारी टिप्पणियो के बाद यही पूछना चाहती हूँ कि आप होकहा ?......मुझे आपकी टिप्पणियो को पढ्कर बहुत कुछ सिखने को मिलता है .................
ReplyDeleteसन्ध्या आर्य जी की बात पे गौर किया जाये आप हो कहाँ ?.
ReplyDeleteभाई तुम कहाँ चले गए पर 'तुम्हारे जाने के बाद'??? :)
ReplyDeleteएक बात कहूँ अपूर्व जी,
ReplyDeleteआपकी सिर्फ़ ये पंक्ति
...तुम्हारा न होना
उतना ही शामिल होता गया है
मेरी जिंदगी मे...
सारा एहसास बयान कर देती है ।
और हाँ,
त्रिवेणी भी पसंद आई ।
simply simply awesome. main koi detailed pinpointed comment nahin de paungi kyunki aapke kaam ko detail karna shaayad mere liye possible ni hai. exceptional work!
ReplyDeletemere blog par aane ka bohot bohot shukriya, cuz it led me to urs...
have a great day:)
"पड़ा रहता हूँ रात भर बिस्तर पर
ReplyDeleteकिसी सलवट सा
नजरों से सारी रात छत के अंधेरे को खुरचता"
aapka har shabd , har ehsaas ... sabke dil ki bolta hai !
किसी दोस्त को सुनाते हुये फ़िर से आ गया... अपूर्व तुम सच में अपूर्व हो..
ReplyDeletebas padhti gai.... or padhti gai.... sab padhti gai....bhut khubsurtyi se aapne jaane ki baat kkahi hai akshar aesa hota hai log chale jaate hai lekin kucchh na kucchh chhodkar jate hai humaare man me...ek na mitne bali yaaden...bhut khub...
ReplyDeletevery interesting blog, thanks
ReplyDeleteblogger tips
sneakers shoes for teenage girls
ReplyDeletesneakers shoes for women