नजर की बादबानी में नजारे डूब जाते हैं
तेरी आँखों की किश्ती मे किनारे डूब जाते हैं
समंदर बेखुदी का हमको भर लेता है बाहों मे
तेरी यादों के तिनके के सहारे, डूब जाते हैं
तजुर्बेकार लेकर लौट आते थाह दरिया की
जिन्हे पर डूबना आता, किनारे डूब जाते हैं
वो माहीगीर-ए-शब के जाल से तो बच निकलते हैं
पहुँच कर भोर के साहिल पे, तारे डूब जाते हैं
कई दरिया उबलते बारहा मेरी रगों मे भी
बदन है भूख का सहरा, बेचारे डूब जाते हैं
यूँ दौलत, हुस्न, शोहरत, सूरमापन नेमतें तो हैं
मगर मिट्टी की किश्ती संग, सारे डूब जाते हैं
(बादबानी- पाल वाली नाव, तजुर्बेकार- अनुभवी, माहीगीर-ए-शब- रात की मछुआरिन, साहिल- किनारा, बारहा-बार-बार, नेमत- ईश्वरीय देन)
(चित्र- सूज़न हिकमेन)
Wah.. Kya baat hai...
ReplyDeleteBahut achche.
Ashish
http://ashishcogitations.blogspot.com/
nice
ReplyDeleteसमंदर बेखुदी का हमको भर लेता है बाहों मे
ReplyDeleteतेरी यादों के तिनके के सहारे, डूब जाते हैं
तजुर्बेकार लेकर लौट आते थाह दरिया की
जिन्हे पर डूबना आता, किनारे डूब जाते हैं
वो माहीगीर-ए-शब के जाल से तो बच निकलते हैं
पहुँच कर भोर के साहिल पे, तारे डूब जाते हैं...
वाह, गजब की लाइनें.
अपूर्वजी,
ReplyDeleteक्या खूब डुबाया है ! हम खूब डूबे हैं ! हर शेर में घनीभूत भाव देर तक मन में ध्वनित होते हैं :
"तजुर्बेकार लेकर लौट आते थाह दरिया की
जिन्हे पर डूबना आता, किनारे डूब जाते हैं !"
और--
'तेरी यादों के तिनके के सहारे डूब जाते हैं !'
यादों का क्या खूब तिनका पकडाया हैं ! वल्लाह ! मज़ा आ गया !
इस ग़ज़ल से सुबह खुशनुमा हो गई ! अब तो इसके शेरों की दिन भर जुगाली होगी !!
सप्रीत--आ.
waah bahut khub likha hai.....ham to bhaw wibhor ho uthe
ReplyDeleteअरसे बाद इस ब्लॉग पे कुछ सफ्हो की तन्हाई डिस्टर्ब हुई...... ये उम्मीद बड़ी जालिम चीज़ है .ना....खैर मेरी पसंद ...बता रहा हूँ.....
ReplyDeleteकई दरिया उबलते बारहा मेरी रगों मे भी
बदन है भूख का सहरा, बेचारे डूब जाते हैं
उम्मीद है अब सफ्हो पर अक्सर पार्टिया होगी....
"उर्दू के शब्दों का उपयोग बेहतरीन था ......."
ReplyDeleteamitraghat.blogspot.com
तजुर्बेकार लेकर लौट आते थाह दरिया की
ReplyDeleteजिन्हे पर डूबना आता, किनारे डूब जाते हैं...........बहुत सुंदर
chhaa gaye sahab !
ReplyDeletebehad gahra bhav ....in do mein yah aur prakhar hua hai...
ReplyDeleteतजुर्बेकार लेकर लौट आते थाह दरिया की
जिन्हे पर डूबना आता, किनारे डूब जाते
यूँ दौलत, हुस्न, शोहरत, सूरमापन नेमतें तो हैं
मगर मिट्टी की किश्ती संग, सारे डूब जाते
समंदर बेखुदी का हमको भर लेता है बाहों मे
ReplyDeleteतेरी यादों के तिनके के सहारे, डूब जाते हैं
waah
instant hit :
ReplyDeleteयूँ दौलत, हुस्न, शोहरत, सूरमापन नेमतें तो हैं
मगर मिट्टी की किश्ती संग, सारे डूब जाते हैं
पाँच हज़ार पॉइंट समथिंग साल पहले एक लेखक हुए थे 'कृष्ण'. उनकी कृति (याद नहीं आ रही) की याद दिलाती है,
वो कैलंडर याद हैं भाई? अरे नहीं kingfisher वाले नहीं . वो तुम क्या लेके आये थे, कौन तुम्हें मार सकता है टाइप्स ?
और ये नया वाला:
ना कोई मरता है ना कोई मारता है ये मैं नहीं कहता 'अमिताभ बच्चन' ने अक्स में कहा है कि गीता में लिखा है .
रदीफ़ बोम्बास्टिक है.
TBC...
अब दोगे गिफ्ट में बारामासी और राग दरबारी और कहोगे कि कमेन्ट serious नहीं है तो भाई excuse ये कि कोई दूसरे mind frame तक ये ग़ज़ल बरकरार रखना.
ReplyDeleteआँखों की शान में क्या क्या कहा गया,
ReplyDeleteसमंदर कभी,दरिया और अब किश्ती कहा गया..
तजुर्बेकार लेकर लौट आते थाह दरिया की
जिन्हे पर डूबना आता, किनारे डूब जाते हैं
तैरने वाले पार निकल जाते है,कई बार सुना था डूबने वालो के बारे में सुना पहले पहल है..
किनारे बैठ दरिया की गहराई नापी नहीं जाती..
वो माहीगीर-ए-शब के जाल से तो बच निकलते हैं
पहुँच कर भोर के साहिल पे, तारे डूब जाते हैं
तारो की किस्मत रात की मछुआरिन से बच भोर के साहिल पे आ डूबे..
यूँ दौलत, हुस्न, शोहरत, सूरमापन नेमतें तो हैं
मगर मिट्टी की किश्ती संग, सारे डूब जाते हैं.(this one is ultimate)
जीवन का सार है ये ..
दो चार दिन की बात है दिल खाक में सो जायेगा.
जब आग पर कागज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नही..
पुस्तक मेले से लौटकर पहली पोस्ट का इंतजार था..उम्मीद थी कि यह तूफ़ान से पहले की खामोसी है मगर ये जलजला आयेगा ...! सोंचा न था.
ReplyDeleteमतला और उसके बाद का शेर ज़वानी की बहार है तो अगले तीन शेरों में ज़िन्दगी जीने की पुरजोर कोशिशें बयां होती हैं अंत में मक्ते का शेर ...ओह ! क्या सूफियाना अंदाज़ है..! यूँ कहें कि इस गज़ल में पूरी जिंदगी कोरे कागज़ पर उतर आई है.
एक शेर याद आ रहा है...
वो कमसिनी का हुस्न था और ये है ज़वानी की बहार
ये तिल तो पहले भी था तेरे रुख पर मगर कातिल न था.
...इस कातिलाना अंदाज़ के लिए बधाई.
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteपरफेक्ट...
ReplyDeleteभावो के स्तर पर इतना गहरा और बिम्बों में इतना खूबसूरत अपूर्व ही लिख सकता है...लम्बे समय बाद आप को पढ़कर मन में कोई विवेचना नहीं उभरी ..एक खूबसूरत अहसास पंक्ति दर पंक्ति उभर कर दिलो दिमाग पर छागया...कोई एक शेर नहीं अपितु पूरी गजल कोट करने लायक है...
यूँ दौलत, हुस्न, शोहरत, सूरमापन नेमतें तो हैं
ReplyDeleteमगर मिट्टी की किश्ती संग, सारे डूब जाते हैं
wah wah wah , behatareen.
कमाल के शेर हैं इस गजल में अपूर्व भाई...
ReplyDeleteकुछ मदहोश करते हैं और कुछ हथौड़े भी मारते लगे जैसे
'बदन है भूख का सहरा, बेचारे डूब जाते हैं'
और हाँ..लगातार हौसला दुरुस्त करते रहने के लिए बहुत शुक्रिया...
कई बार तो आप ऐसे पहलू भी निकाल लाते हैं मेरी कविता में कि उसके बारे में मैंने भी नहीं सोंचा होता है..
बाद में आने का सुख
ReplyDeleteदर्पण की टिप्पणी - do -
सिविल इंजीनियरिंग का laminar flow याद आ गया। सहज, सरल और उस पर भी ढाह दे कहर !
कुछ लोगों की ग़ज़ल पढ़कर ख्याल आता है की हम भी गज्ज्ज़ल लिखें :)
ReplyDeleteआज का रंग कुछ अलग लिखते रहें यूँ ही...
ReplyDeleteमाशाअल्लाह जनाब, क्या बात है।
ReplyDeleteनजर की बादबानी में नजारे डूब जाते हैं
तेरी आँखों की किश्ती मे किनारे डूब जाते हैं
आह ऐसी नज़रे और ऐसी आंखे, किसे न मदहोश कर दे...। यह मोहब्बत की दीवानगी है। अपने हुज़ूर की तारीफ और आंखों में बसने का, बसे रहने का क्या बेमिसाल तरीका। वाह। आंखों की किश्ती में सवार किनारे कब ढूंढते हैं, या कहूं किनारों की परवाह ही नहीं, या फिर डूब जाना चाहते हैं, ऐसा कि फिर कभी उबरे ही न।
तेरी आँखों की किश्ती मे किनारे डूब जाते हैं...यहां तो मुझे एसा लगता है कि इसे भी लिखने या बताने की क्या जरूरत कि किनारे डूब जाते हैं, क्योंकि प्रेम के और वह भी आंखों के उस अंतरतम गहराई में आप हैं जहां किनारे कहां दिखते हैं कि डूब जाते हैं, जैसे भाव हों। मगर गज़लकार के लिये जरूरी हो जाता है क्योंकि वो मोहब्बत का ज़िक्र कर रहा है, यानी प्रेम में तो है किंतु बावज़ूद इसके प्रेम से थोडा सा परे खडा देख रहा है। वरना प्रेम में किसे कहां कुछ दिखता या समझता है भाई।
समंदर बेखुदी का हमको भर लेता है बाहों मे
तेरी यादों के तिनके के सहारे, डूब जाते हैं
डूबे न। मगर मैने सुना था तिनके के सहारे उबर जाया करते हैं, यहां तो उसके सहारे डूबा जा रहा है। यह डूबना भी समझा, प्रेम में डूबना, और इसमे तो साहब कोई माईकालाल नहीं जो उबार ले।
तजुर्बेकार लेकर लौट आते थाह दरिया की
जिन्हे पर डूबना आता, किनारे डूब जाते हैं
मुझे तो गोपी गीता के उस प्रसंग की याद आ गई जिसमें कृष्ण उद्धव को राधा व गोपियों को समझाने ब्रज भेजते हैं, जहां उद्धव का ज्ञान गोपियों के प्रेम के सम्मुख छार छार हो बह जाता है और उद्धव प्रेम का गूढ अर्थ या उसका रस जान लेते हैं। सो तजुर्बेकार और क्या जान कर लौटेंगे, सिर्फ थाह ही न, किंतु थाह के अन्दर की थाह तो प्रेमी ही जान सकता है जिन्हें डूबना आता है।
यूँ दौलत, हुस्न, शोहरत, सूरमापन नेमतें तो हैं
मगर मिट्टी की किश्ती संग, सारे डूब जाते हैं
दर्शन की बात। और मेरा पसन्दीदा सबजेक्ट। आह, अपूर्वजी मज़ा आ गया..क्या क्या सोच रहा हूं मैं...कभी लिखुंगा पर फिलवक्त मुझे डूबे रहने दो यार, लिखता हूं तो हट जाता हूं इस समां से....
बदन है भूख का सहरा, बेचारे डूब जाते हैं
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत मिसरा है यह ..
अपूर्व भाई, मुझे बहुत ही पसंद आई ये ग़ज़ल, इतनी कि अदा दी को अहमद फ़राज़ के लहजे में सुनाई भी.. और उन्होंने भी दिल खोल कर तारीफ की.. बधाई..
ReplyDeleterachna bahut achhi lagi sir....vo kehte hai na
ReplyDelete"taalab dariya ya samandar, chahkar bhi dubega kaun...........jheel si ankhe ho to fir dubna manjoor hai"
समंदर बेखुदी का हमको भर लेता है बाहों मे
ReplyDeleteतेरी यादों के तिनके के सहारे, डूब जाते हैं
Nishabd kar diya aapne!
ग़ज़ल के हर शेर में डूबता चला गया। अद्भुत।
ReplyDeleteमै तो अभी डूब रहा हू.. लग रहा है फ़िर आना पडेगा..बाउन्सर है ये, पर मै डक नही कर रहा हू :)
ReplyDeleteकई दरिया उबलते बारहा मेरी रगों मे भी
ReplyDeleteबदन है भूख का सहरा, बेचारे डूब जाते हैं.
गम-ए-बेवफ़ाई, फिर उस पे ’रिसेशन’
दिवानों की निकलीं दिवालों सी रातें
इन दोनों शे'रों को एक साथ पढने का मन हुआ. क्या समानता है इन दो शेरों में? कुछ भी नहीं.
पर मुझे क्यूँ लगा?
रंग दे बसंती देखी थी? 'सू' से सेंटी होकर गाड़ी में क्या कहा था आमिर ने?
http://www.youtube.com/watch?v=-aFDe3izhvc&feature=PlayList&p=1E449D9B9E255737&index=5
(specially 1:35)
अगर मैं वो नहीं समझा तो ये भी नहीं समझ पाऊंगा.
कह रहे हैं कि गंगा का उद्गम स्थल वो नहीं है जो था. तो था क्या? और बाए द वे होगा क्या?
यार तुमको लिंक देने के चक्कर में मैं भी सेंटी हो गया...
ReplyDelete...BDT सब बियर दा कुसूर है यार . सब बाहर निकल आया.
कई दरिया उबलते बारहा मेरी रगों मे भी
ReplyDeleteबदन है भूख का सहरा, बेचारे डूब जाते हैं.
बिना बीयर के वापस आया हू समझने.. चीयर्स इस शेर के नाम..
अपना भी कुछ लिखा चेप दे रहा हू..
"मैं रोज़ इस ज़िन्दगी से लडता था,
माओ और चे की तरह नही, एक आम आदमी की तरह
आज मैं मर गया हूँ और मेरे साथ मेरी क्रान्ति भी……"
तंत्री राग कवित्त रस , सरस रास रस रंग |
ReplyDeleteअनबूड़े बूड़े तिरें , जिन बूड़े सब अंग || ( बिहारी )
..............
बूड़ना सकारात्मक भी है , आपको पढ़ते हुए और लगा !
समंदर बेखुदी का हमको भर लेता है बाहों मे
तेरी यादों के तिनके के सहारे, डूब जाते हैं |
..........
शायद आपकी पहली गजल पढ़ रहा हूँ , इस दिशा में भविष्य
को लेकर आशान्वित हूँ , आभार !
अपूर्व जी ... बहुत ही कमाल की ग़ज़ल है ... आपकी महारत हर विधा में है ...
ReplyDeleteयूँ दौलत, हुस्न, शोहरत, सूरमापन नेमतें तो हैं
मगर मिट्टी की किश्ती संग, सारे डूब जाते हैं
इस अंतिम शेर में लिखी बात शाश्वत है ... सच है पल भर का ठिकाना नही, सामान ज़िंदगी भर का ....
बहुत मज़ा आता है आपको पढ़ कर ...
इधर घाटी ने कुछ ज्यादा ही व्यस्त कर रखा है। पता न था कि तुम ग़ज़ल लगाओगे, वर्ना पहले ही आ जाता। पुरानी जमीन पर एक बेहतरीन ग़ज़ल कही है अपूर्व तुमने।
ReplyDeleteकुछ शेर यकीनन लाजवाब बन पड़े हैं...इतने कि मुझे एक और कम्पिटिशन दिखता नजर आने लगा है। मतला है तो पढ़ने में बहुत ही खूबसूरत, लेकिन गौर से पढ़ने पर तनिक विरोधाभास दे रहा है। बादबानी में नजारे का डूबना तो फिर भी ठीक है किंतु कश्ती में किनारे का डूब जाना...?
दूसरे शेर में यादों के तिनके सहारे डूबने का बिम्ब यूं तो बेहतरीन बना है लेकिन "तिनके" के तुरत बाद "के" का आना..के-के का उच्चारण गेयता में दखल देता है।
तीसरे और पांचवें शेर पे करोड़ों दाद कबूल फरमाओ। और चौथा शेर सुभानल्लाह...इस एक शेर में एक नया शायर उठने को बेकरार दिख रहा है। आमीन!
यूँ दौलत, हुस्न, शोहरत, सूरमापन नेमतें तो हैं
ReplyDeleteमगर मिट्टी की किश्ती संग, सारे डूब जाते हैं
kya baat kahee hai.......
नजर की बादबानी में नजारे डूब जाते हैं
ReplyDeleteतेरी आँखों की किश्ती मे किनारे डूब जाते हैं
कश्ती में किनारे का डूब जाना ओर आगे भी यही तासीर कायम रहना गजल की जान है ।
पूरी गजल और यह भाव खासकर बहुत पसंद आया ।
सुना है बाढ़ से भी पुरअसर है मौत का दरिया,
ReplyDeleteपुराने बाँध से रिश्ते, हमारे डूब जाते हैं.
इनायत से नहीं तेरी, गिला अपने मुकुद्दर से,
'सहारे' से फिसलते हैं, 'उबारे' 'डूब' जाते हैं .
ग़ज़ल में खयालात अपने परवाज़ पर हैं , नफीस बातें पुरसुकून अंदाज़ हैं...
ReplyDeleteगौतम भाई ने जो कहा है उसपर ध्यान दो , मुझे तीसरे शे'र का सानी समझ नहीं आया ....
पहले मिसरे के हिसाब से कहूँगा तो थोड़ा कमजोर है पहला मिसरा वाकई कमाल का इसमिसरे पर जीतनी दाद दी जाए कम है....
खुबसूरत ग़ज़ल ... नई बोतल में वाकई पुरानी शराब ....
बधाई
अर्श
meri nazro ne tumhe dhundha tha usi atari par jaha hum kabhi saath baitha karte the, par ye kya aaj tum nahi ho sapna jab tuta to pata chala......
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