२३ मार्च का दिन हिंदुस्तान की तारीख मे बेहद खास है। इस दिन आजादी के तीन दीवानों ने शहादत के गले मे हार डाल दिया था। जिन शहीदों ने अपनी हर साँस मुल्क के वास्ते निसार कर दी हो, हमारी आजादी का हर एक पल उनकी शहादत का ऋणी है। इसलिये उनकी स्मृति के लिये साल का सिर्फ़ एक दिन मुकर्रर रखना एक मजाक लगता है। मगर बाजार द्वारा प्रायोजित उत्सवों वाले नशीले दिवसों से बेतरह भरे हमारे कैलेंडरों मे २३ मार्च का दिन किसी ’वेक-अप अलार्म’ की तरह आता है। हमारा वक्त तबसे उन्नासी बरसों के पत्थर पार करने के बाद आज जब पलट कर देखता है तो उन तमाम क्रांतिवीरों की शहादत की प्रासंगिकता अब पहले से भी बढ़ जाती है।
इसी खास मौके पर भगत सिंह, खुदीराम बोस और राजगुरु ही नही ऐसे तमाम बलिदानियों की शहादत को याद करते हुए मैं अपने पसंदीदा क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधू ’पाश’ की एक कविता रख रहा हूँ जो उन्होने २३ मार्च १९८२ को शहीद दिवस के मौके पर लिखी थी। यह भी नियति का एक खेल था कि ठीक दो साल बाद इसी दिन वो भी खालिस्तानी आतंकियों की गोली का शिकार हो कर शहीद हो गये थे। प्रस्तुत है पाश की यह कविता इस उम्मीद के साथ कि उन बलिदानियों की स्मृति शायद हमारी रगों मे बहने वाले द्रव्य मे उन वतनपरस्तों के खून का रंग और गर्मी पैदा कर सके।
उसकी शहादत के बाद बाकी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताजा मुंदी पलकें देश मे सिमटती जा रही झांकी की
देश सारा बच रहा साकी
उसके चले जाने के बाद
उसकी शहादत के बाद
अपने भीतर खुलती खिड़की में
लोगों की आवाजें जम गयीं
उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चेहरे से आँसू नही, नाक पोंछी
गला साफ़ कर बोलने की
बोलते ही जाने की मशक की
उससे संबंधित अपनी उस शहादत के बाद
लोगों के घरों मे
उनके तकियों मे छिपे हुए
कपड़े की महक की तरह बिखर गया
शहीद होने की घड़ी मे
वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह निस्तेज नही था ।
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14 hours ago
इन शहीदों कों प्रणाम
ReplyDeleteलेकिन ईश्वर की तरह निस्तेज नही था..
ReplyDeleteपाश की एक और जानदार कविता पढाने के लिये शुक्रिया...
सबसे खतरनाक होता है,
ReplyDeleteमुर्दा शांति से भर जाना.
न होना तड़प का,
सब सहन करी जाना.
घरो से निकलना काम पे,
और काम से घर जाना.
सबसे खतरनाक होता है,
हमारे सपनो का मर जाना.
भगत सिंह ने फांसी के वक़्त जेल में अपने पास कुछ शेयर रखे हुए थे.उनमे से इक..
ReplyDeleteभला निभेगी तेरी हमसे क्यों कर ऍ वायज़
कि हम तो रस्में मोहब्बत को आम करते हैं
मैं उनकी महफ़िल-ए-इशरत से कांप जाता हूँ
जो घर को फूंक के दुनिया में नाम करते हैं।
शहीद होने की घड़ी मे
ReplyDeleteवह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह निस्तेज नही था ।
इन शब्दों को पढ़कर अंदर तक हिल गया...तब और अब के नजरिये के फर्क से विचलित हो जाता हूँ!
@डिम्पल-''भगत सिह के शेर(शेयर?)का परिचय कराने का आभार!":)
भला निभेगी तेरी हमसे क्यों कर ऍ वायज़
कि हम तो रस्में मोहब्बत को आम करते हैं
मैं उनकी महफ़िल-ए-इशरत से कांप जाता हूँ
जो घर को फूंक के दुनिया में नाम करते हैं।
वाकई संग्रह करने लायक है...शुक्रिया!
अमर शहीदों को नमन!!
ReplyDelete-
हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
अमर शहीदों को शत-शत नमन!
ReplyDeleteउसकी शहादत के बाद
ReplyDeleteदेश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चेहरे से आँसू नही, नाक पोंछी...सटीक कविता
....उन्हें नमन ...कल सोचा था कुछ लिखूंगी ....लेकिन इससे बेहतर क्या होता,जो तुमने लिखा .... आभार तुम्हारा भी, अभी तुम्हारी पिछली कई पोस्ट पढ़ना बाकी है ..बेहद उलझने हेँ ..दिल और दिमाग दोनों एक साथ ठिकाने पर हो तभी कुछ पढ़ना और लिखना सार्थक हो पायेगा, नव वर्ष की शुभकामना
23 मार्च सच में ही खास दिन होता है। शहीदों की शहादत को नमन करने का और उनके विचारों की ज्योति को जलाए रखने का। पाश जी वो शब्द आज भी गूँजते है कि सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना......। सलाम।
ReplyDelete"सबसे खतरनाक वह धूप होती है,जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाये"
ReplyDeleteइनको सर्वदा नमन,इन्ही की बदौलत आज हम हैं,बढ़िया प्रस्तुति,आभार.
ReplyDeleteअपूर्वजी,
ReplyDeleteपाश की जानदार-शानदार कविता पढ़कर रोमांचित हो उठा ! यह जानना भी आपकी दी हुई सूचना से ही हो सका कि पाश ने आत्मोत्सर्ग करनेवाले बलिदानियों पर रूह कंपा देनेवाली कविता ही नहीं लिखी; बल्कि उन्हीं का अनुसरण करते हुए उनके बलिदान-दिवस पर अपनी शुभ्र-धवल काया का परित्याग भी किया था !
माखनलाल चतुर्वेदीजी एक कविता-पंक्ति याद आ रही है :
'मुझे तोड़ लेना वनमाली,
देना उस पथ पर तुम फ़ेंक,
मातृभूमि पर शीश चढाने,
जिस पथ जाएँ वीर अनेक !'
मुझे लगता है, पाश जीवन-उपवन के ऐसे ही पुष्प थे और यही थी उनकी अप्रतिम अभिलाषा !!
सप्रीत--आ.
इस पोस्ट पर टिपण्णी करने से पहले एक साल पहले कंप्यूटर में जमा भगत सिंह पर लिखी एक कविता को ढूंढ रहा था ........तेईस की उम्र के भगत सिंह के वास्ते लिखी गयी....ओर हमारी नाफ़रमानी की गुजरी उम्र के वास्ते......फेसबुक पर मैंने ढूंढ कर उनकी एल्बम लगायी है....ओर यशपाल के विषय में बहुत कुछ सुरत की नर्मद लाइब्रेरी में ढूंढ कर पढ़ा है .......फिलहाल दोबारा आयूंगा .उस कविता को लेकर.....
ReplyDeleteलगे हाथ एक सन्दर्भ मैं भी दे रहा हूँ...
ReplyDeletehttp://samkaleenjanmat.blogspot.com/2010/03/blog-post_23.html
और कविता यहाँ लगा रहा हूँ
जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें
उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें
जिन कारखानों में उगता था
तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज
वहां दिन को रोशनी रात के अंधेरों से मिलती है
ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत
कि कांपी तक नही जबान
सू ऐ दार पर इंक़लाब जिंदाबाद कहते
अभी एक सदी भी नही गुज़री और
ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी
कि पूरी एक पीढी जी रही है ज़हर के सहारे
तुमने देखना चाहा था जिन हाथों में सुर्ख परचम
कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में
रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने
तुम जिन्हें दे गए थे एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब
सजाकर रख दी है उन्होंने
घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं
तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है
इस साल जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडों के साथ
सब बैचेन हैं तुम्हारी सवाल करती आंखों पर
अपने अपने चश्मे सजाने को तुम्हारी घूरती आँखें
डरती हैं उन्हें और तुम्हारी बातें
गुज़रे ज़माने की लगती हैं
अवतार बनने की होड़ में
तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग
रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में
तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है
मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल
तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह
जबकि जानता हूँ की तुम्हे याद करना
अपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है
कौन सा ख्वाब दूँ मै अपनी बेटी की आंखों में
कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ
उसके सिरहाने
जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते ...
हिन्दुस्तान बन गया है
----- अशोक कुमार पांडे
डॉ. अनुराग शायद जिस कविता की बात कर रहे हैं वो उनके ब्लॉग पर भी (संभवतः) मौजूद है और एक-आध बार कही कमेन्ट में भी उस कविता का जिक्र किया है... बहरहाल अगर यह वो नहीं है तो हम मुन्तजिर हैं...
आपकी कविता हिंद-युग्म पर भी पढ़ी... देखकर ख़ुशी हुई, बहुत सर है अभी बांकी...
स्तब्ध ... बहुत कुछ है इस रचना में जो दिल को झंझोड़ जाता है ...
ReplyDeleteनमन है आज़ादी के इन सपूतों को ....
azmal khaan ki kalam se ankurit hui RAAM par rachna laazvaab isliye he ki yanhaa pitaa ki janmbhar ki kamaai ingit he..., ji hnaa, shreshth putr ke liye shreshth pita ka hona amooman jaroori hota he.., dasharth jese charitr par kai prasang padhhe he..unke jeevan ke sandarbh ka addhyan kiyaa he..aour jab me dekhataa hu raam ke baare me likhate hue har us kavi yaa lekhak ko ki usne dasharth par apni mool kalam chalaai he to lagtaa he vo raam ke bahut kareeb he.../ kher..
ReplyDeletePAASH ki kavita padhh rakhi he esa nahi kah saktaa kyoki yah to jeevant he..jeevan jo chal rahaa he...yaani koun shahid hua bhaai...??? hamare dilo dimaag me base krantikaari me samjhtaa hu shahid bhi kabhi nahi ho sakte.., vo to jinda he..hamare ant tak...
@सागर .....ठीक कहा .वो मेरे ब्लॉग पर भी है .....क्या तुम उसे यहाँ पोस्ट कर सकते हो.......भगत सिंह ओर कर्ण दो ऐसी चरित्र है .जिनके बारे में जहाँ से कुछ भी मिल जाए ओर जानने की इच्छा रहती है .....२३ साल की उम्र....कभी कभी सोचता हूँ के क्या आखिर में वे भी हिंसा - अहिंसा की ताकत की दुविधा में फंसे थे .खास तौर से अनशन के दिनों में ...जब पढता हूँ के अनशन के दौरान क्रान्तिकारियो ने लाल मिर्ची खा ली थी .ताकि गला फूल जाए ....ओर डॉ भी गले में नली डाल कर जबरदस्ती न खिला सके तो मेरी रूह हिल जाती है उस जज्बे के बारे में सोचकर ....... कितना बड़ा ज़ज्बा.था उन दिनों....कितने पाक लोग थे .उन दिनों.......वो कौन सी ताकत थी जो उस उम्र में उन्हें ......बीच में भोपाल गैस काण्ड पर एक किताब पढ़ी थी ..ओर उससे जुड़े आज भी कई लोगो के बारे में पढ़कर सच में लगता है .हम खली लफ्फाज़ लोग है .अपने लिए जीने वाले ......जाने दो इमोशनल हो रहा हूँ......
ReplyDeleteजरा सा नकारात्मक हुआ जाए तो सोंच इस तरह जाती है...
ReplyDeleteजिस आजादी के लिए हमारे इन तीन शहीदों ने इतना कुछ किया (जो अनुराग जी की शब्दों में रूह को हिला देने वाला है..), उस आजादी का इस्तेमाल किस तरह किया जा रहा है...?
'पाश' कवि थे..और इस चाह में कि कविता हमें आजाद करेगी...शहीद हो गए...उस कविता का इस्तेमाल किस तरह किया जा रहा है..?
कानू सान्याल- उन्होंने अगर आत्महत्या भी की हो तो शायद वो शहीद होने का एक तरीका हीं है...जिस विचारधारा को लेकर वे चले, उसमें कैसे कितना कुछ कचरा मिला दिया गया... और कैसे इस्तेमाल किया जा रहा है उस विचारधारा का..?
मगर मैं सकारात्मक हो रहा हूँ...और सलाम कर रहा हूँ उन सबको... जो इन कुर्बानियों का लौ जलाये रखते हैं हमारे सीने में...नहीं तो ये देश न जाने और कहाँ जाए...
सलाम अपूर्व को, सागर को और अनुराग जी को..और उन सब भाई-बहनों को जो इस लौ को अपने हाथ पे रख कर चलते हैं..
http://anuragarya.blogspot.com/2008/12/blog-post_25.html
ReplyDeleteआज त्रिवेणी लिखने का मन नही है ,कल रात एक कविता पढ़ी थी .सुबह तक वही सिरहाने थी .राजेन्द्र कुमार की कविता .."भगत सिंह :सौ बरस के बूढे के रूप में याद किए जाने के विरुद्ध "
वे तेइस बरस
आज भी मिल जाए कही ,किसी हालात में
किन्ही नौजवानों में
तो उन्हें
मेरा सलाम कहना
ओर उनका साथ देना
ओर अपनी उम्र पर गर्व करने वाले बुढो से कहना
अपने बुढापे का गौरव उन पर नयोछावर कर दे ......
(भगत सिंह २३ साल की उम्र में शहीद हुए थे .....महज़ २३ साल .)
@sagar
ReplyDeleteवे तेइस बरस
आज भी मिल जाए कही ,किसी हालात में
किन्ही नौजवानों में
तो उन्हें
मेरा सलाम कहना
ओर उनका साथ देना
ओर अपनी उम्र पर गर्व करने वाले बुढो से कहना
अपने बुढापे का गौरव उन पर नयोछावर कर दे .....awesome poem
पाश साहब की बेहतरीन कविता हम तक पहुँचाने का शुक्रिया......!शहीदों को याद करते हुए बहुत अच्छा लेख.....
ReplyDeleteशुक्रिया सागर
ReplyDeleteइन दो बेहद सशक्त कविताओं को यहाँ पर लाने का कष्ट उठाने के लिये
..अशोक कुमार पांडेय जी की कविता उसी दिन उन्के ब्लॉग पर ही पढ़ी थी..और उसकी सच्चाई पर स्तब्ध और निःशब्द था..
अनुराग जी की बताई यह कविता मैं भी उनके ब्लॉग पर घंटो खंगालता रहा था..मगर मुझे नही मिली..सो उस कविता को खोज कर हमे उपलब्ध कराने के लिये बधाई..बस मुझे संस्कृत की एक उक्ति याद आती है
मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयो नश्चिरं धूमायते
कुछ क्षणों का प्रज्ज्वलन उम्र भर सुलगने से ज्यादा श्रेयस्कर होता है.
मगर बकौल डॉ अनुराग हमारी उम्र ऐसे ही नाफ़रमानी मे गुजर जाती है..और कब हमारी श्रद्धा को धकेल कर खाली लफ़्फ़ाजी हमारी सोच पर कब्जा कर लेती है..हमे खुद पता नही चलता.
और ओम जी ने कानु सान्याल का जिक्र सटीक संदर्भ मे किया है..मगर एक सपने की शहादत का यह अर्थ क्या किशन जी व उनके साथियों ने समझा होगा..?..जैसे गांधी की शक्ल नोटों पर छाप कर उन्हे अपने काले धन्धों मे, लोकतंत्र की खरीद-फ़रोख्त मे हमने शरीक कर लिया वैसे ही शहीदों के बलिदान-दिवस को श्रद्धांजलि समारोह मे बदल कर हमने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली..और अब तो अपने मकसद के लिये शहीदों का अपमान करते हुए हमें शर्म तक महसूस नही होती..क्या कहें!!!
आप तो थिंक टेंक हो दोस्त...
ReplyDeleteशहीदों की स्मृतियां इस कदर भी जाया नहीं कि उन्हें मिट्टी में दफ़न होने दिया जायेगा, आप और आपके ब्लॉग पर आने वाले विचारक ऐसे हलवाहे हैं, जो देशभक्ति और त्याग - बलिदान की मिट्टी को पलटते रहेंगे. नई कोंपलें फूटती रहेगी, नए फूल इसी विचार की खाद से फलते - फूलते रहेंगे.
इस पोस्ट को और इस पर आए दुर्लभ कमेंट को पढ़कर ब्लागिंग की सार्थकता को समझा जा सकता है।
ReplyDelete---आभार।
देर से आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ अपूर्व.. लेकिन 'देर आयद दुरुस्त आयद' अगर ना पढ़ पता तो हमेशा अफ़सोस रहता कि एक भुत शानदार कविता खसकर वो कविता जो अमर शहीदों को समर्पित हो नहीं पढ़ पाया.. आभार..
ReplyDeleteजय हिंद...
मुझे किसी ने पाश के बारे में पुछा था मैंने तुम्हारा लिंक दे दिया था.. अनुराग जी का लिखा फिर से पढ़ लिया.. भगत सिंह का फैन ही नहीं हूँ मैं उसके जैसा बनना भी चाहता हूँ.. वो विचार उस सोच को जीना चाहता हूँ.. काश कही कोई टाईम मशीन होती.. तो उनके पांवो से लिपट कर बहुत रोता मैं..
ReplyDeleteअपूर्व जी आपकी पोस्ट में पाश जी की ये नज़्म देख बेहद ख़ुशी हुई ....पाश जी को कमोबेश पढ़ा है मैंने ....ज्यादा विस्तार से नहीं पढ़ पाई ....पंजाबी के सबसे सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं वे .....वे विद्रोही कवि के रूप में पहचाने जाते हैं ...जालंधर के ही जन्मे हैं ये ...इनकी सहानुभूति माओवादियों के साथ थी .....२१ वर्ष की आयु में दो साल जेल में बिताये ...इन्होने एक 'सियाई ' नामक पत्रिका का संपादन भी किया ...उनका ''उडदे बाजां मगर '' कविता संग्रह काफी लोकप्रिय रहा है .....१९८८ में कुछ सिख आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी थी .....!!
ReplyDeleteआज पाश जी की एक और कविता का एक अंश यहाँ पोस्ट कर रही हूँ......
हम लड़ेंगे साथ उदास मौसमों के लिए
हम लड़ेंगे साथी गुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेगे साथी ज़िन्दगी के टुकड़े
हथोडा अब भी चलता है उदास निहाई पर
हल अब भी चलते हैं चीखती धरती पर
यह कम हमारा नहीं बनता प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी ....
देर से आने का फ़ायदा हुआ .. पाश जी के अलावा औरो को भी पढा ..
ReplyDeleteढेर सारी विडम्बनओ के बावज़ूद ...अपूर्व जैसे नौजवान उम्मीद जगाते हैं मशाल की अग्नि को जीवित रखने की..
आकाशवाणी सुनी अपूर्व साहब ?
ReplyDeleteउम्दा चयन. मुझे भी 'समय ओ भाई समय' की गर्द झाड़ने की सुध आई.शुक्रिया.
ReplyDeleteनज़्म /राजेंद्र कुमार
ReplyDeleteमैं फिर कहता हूँ
फांसी के तख्ते पे चढ़ाये जाने के पचह्त्तर
बरस बाद भी
'क्रांति की तलवार की धार विचारो की
सान पर तेज़ होती है.'
वह बम
जो मैंने असेम्बली में फेंका था
उसका धमाका सुनने वालो में तो अब
शायद ही कोई बचा हो
लेकिन वह सिर्फ बम नहीं,एक विचार था
और विचार सिर्फ सुने जाने के लिए नहीं होते
माना के यह
मेरे जन्म का सौवां बरस है.
लेकिन मेरे प्यारो,
मुझे सिर्फ सौ बरस के बूढों में मत ढूँढो.
वे तेइस बरस कुछ महीने
जो मैंने एक विचार बनाने की प्रक्रिया में जिए
वे इन सौ बरसो में कहाँ खो गये
खोज सको तो खोजो.
वे तेइस बरस
आज भी मिल जाए कही ,किसी हालात में
किन्ही नौजवानों में
तो उन्हें
मेरा सलाम कहना
ओर उनका साथ देना
ओर अपनी उम्र पर गर्व करने वाले बुढो से कहना
अपने बुढापे का गौरव उन पर नयोछावर कर दे .
अपूर्व भाई प्रासंगिकता तो बढ़ गयी, बेशक बढ़ गयी....
ReplyDeleteलेकिन स्वीकार्यता घटी है, शून्य हो गयी है.
लगता है कि 'कृष्ण' ५००० वर्ष पहले इश्वर नहीं रहे होंगे. और गीता कोई पूजनीय पुस्तक नहीं मनन की वस्तु रही होगी. "उडदे बाजां मगर" या इस जैसी पुस्तकें कब तक अपूजनीय रहींगी ? भगत सिंह भगवन न बनें बस.
युद्ध: कुछ प्रभाव. (पाश द्वारा)
ReplyDelete१)
झूठ बोलते हैं,
ये हवाई जहाज़, बच्चों !
(इनको) सच ना मानना
तुम खेलते रहो
घर बनाने का खेल...
२)
रेडियो से कहो
कसम खाकर तो कहे
धरती गर माँ होती है तो किसकी?
ये पाकिस्तानियों की क्या हुई?
और भारतवालों की क्या लगी?
तर्ज़-ए-ज़फ़ा (भगत सिंह द्वारा)
उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें,
चर्ख से क्यों ग़िला करें
सारा जहां अदु सही, आओ मुक़ाबला करें ।
तर्ज़-ए-ज़फ़ा = अन्याय दहर = दुनिया चर्ख = आसमान अदु = दुश्मन
@ Dimple Malhotra... shukriya...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमैं हिन्दू हूँ
ReplyDeleteमैं मुस्लिम से नफरत करता हूँ.
मैं सिखों से भी नफरत करता हूँ,
मुस्लिम और सिख एक दूसरे से नफरत करते हैं,
दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है,
दोस्त का दुश्मन दुश्मन ,
इसलिए,
मैं हिन्दुओं से नफरत करता हूँ.
दुनियाँ की महान नफरतों,
...अफ़सोस !!
तुम्हारी वजह से,
मेरी बात मैं 'प्रेम' कहीं नहीं है.
...एवें ही ;)
शहीद होने की घड़ी मे
ReplyDeleteवह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह निस्तेज नही था ।
इसलिये कि ईश्वर का उसकी ज़िन्दगी मे कोई दखल नही था । पाश को सलाम जिनकी कविताओं ने मुझे ज़िन्दगी मे कई जगह राह दिखाई है ।
किधर हैं अपूर्व जी ... आपकी रचना की प्रतीक्षा है ....
ReplyDeletehamen bhi hai Naasva Ji, tap karna padega magar iske liye
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसर्वत ज़माल साहब का बेहद जरूरी कमेंट जो तकनीकी दिक्कतों से मिट गया था उसे उनकी इजाज़त से दोबारा लगा रहा हूँ
ReplyDeleteदेश के लिए जान कुर्बान करने वाले अमर शहीदों को सरकारी तौर पर इस लिए याद नहीं किया जाता कि उन्होंने न देश को लूटा, न पैसे कमाए, न स्विस बैंक में ही कोई एकाउंट खोला. राजनीतिज्ञों को लगता है कि आज़ादी वैसे भी मिल जाती, इन लोगों ने जान देकर कौन सा तीर मार लिया. शायद इसी वजह से उन्हें पूजा जा रहा है जो स्वाधीनता संग्राम आन्दोलन के आस-पास भी नहीं फटके. जातिवादी, भाषाई नेताओं के जन्म दिन, मरण दिन त्यौहार की तरह मनाए जाते हैं. उन्हों ने अपने उत्तराधिकारियों को बहुत कुछ दिया, इस लिए उनका गुणगान आज तक जारी है.
आपके विचारों से मैं पहले भी प्रभावित था, आज इस पोस्ट ने तो आपका मुरीद बना दिया.
यहाँ से छूटा था .. झाँकने आ गया .. और टीपने वालों ने
ReplyDeleteक्या कवियाओं को रखकर समाँ बाँध दिया है ! ... एक से
बढ़ कर एक ... सभी को आभार कह कर आगे बढ़ रहा हूँ ..
देर से आया---बहुत सी लफ़्फ़ाज़ी पढी. भावुक टिप्प्णी, कविता, कथन, प्रशन्सा---पाश की कविता तो उत्तम है ही, कविता सभी अपने विचार से उत्तम लिखते हैं।
ReplyDelete---एक नकारात्मक बात-- शहीद कभी याद किये जाने के लिये नहीं लडे व शहीद हुए, अपितु उनके पदचिन्हों पर लोग चलें इसलिये. एवम--
"वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह निस्तेज नही था ।" ----इस वाक्य को पढकर स्वयं भगत सिन्ह रोरहे होंगे स्वर्ग में जो स्वयं ईश्वर पर पूरी आस्था रखने वाले इन्सान थे।
---भावुकता में हम कविता में न कहने वाली बात भी कह जाते हैं।
itni der se aane ka itna faayada...pahle to kabhi na hua tha dost.
ReplyDeleteSabhi ko hath jod ke shukriya kahta chalun.
laajawab keep it up
ReplyDelete