Monday, August 31, 2009

आत्मकथ्य

अपनी ही अगाध गहराइयों में
खामोश, डूब जाता है समन्दर,
ठंडे निर्जीव शिखरों पर
अपने एकाकी अमरत्व का अभिशाप
भोगता है
अकेला पहाड़,
खुद की ही
बेपनाह बेचैनी की तपिश मे
बरबस झुलस जाती है
बदहवास आग,
अपनी ही
अनजानी ख़्वाहिशों की
खुशबू की तलाश मे
अजनबी जंगलों की अंधी गलियों मे
आवारा भटकती रहती है हवा,
और आसमान
छुपाये रखता है
अपने अनंत विस्तार में
अपना अंतहीन खालीपन !

समंदर है
पहाड़ है
है आग, हवा
और आसमान
और
मैं हूँ
इन सब से बना
इन सब में बसा
अपनी हदों में
अपने वजूद को तलाशता
मैं
ऐ खुदा
इस बदन की
पथरीली चारदीवारियों मे कैद
धीरे-धीरे
पत्थर का हुआ जाता हूँ
मै
शायद कुछ-कुछ
तुम्हारी तरह

मिट्टी के जिस्म में
गहरे तक
पेवस्त हुई जाती हैं
मेरे वजूद की जड़ें.
पता नही कि
उखड़्ने का दर्द
जमीन को ज्यादा होता है
या जड़ों को !

क्यों है कोई
सिर्फ़ होने के लिये
कितने सवालों के सलीब
सराबों के अजनबी शहर मे
नामालुम सी तलाश
खुद की
मुट्ठी से फ़िसलती
साँसों की गर्म रेत
और मीलों लम्बी
काली रात

मैं
कायनात़् का क्षुद्रतम अंश
खुद कायनात का ख़ुलूद था
मैं था
समन्दर, पहाड़, आग,
हवा और आसमान
अब मुझमे है
खारी ख़ामोशी
अजर अकेलापन
बेपनाह बेचैनी
बेसबब भटकन
मुझमे है
अंतहीन खालीपन !
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