कौन सा
अनजाना गीत है वह
जिसे
चैत्र की भीगी भोर में
चुपके से गा देती है
एक ठिगनी, बंजारन चिड़िया
विरही, पत्र-हीन, नग्न वृक्ष
के कानों मे
कि गुलाबी कोंपलों की
सुर्ख लाली दौड़ जाती है
उदास वृक्ष के
शीत से फटे हुए कपोलों पे
और शरमा कर
नये पत्तों का स्निग्ध हरापन
ओढ़ लेता है वृक्ष
खोंस लेता है जूड़े मे
लाल-पीले फूलों की स्मित हँसी
लचकती, पुनर्यौवना शाखाओं को
कंधों पर उठा कर
समुद्यत हो जाता है
उत्तप्त ग्रीष्म के दाह मे
जलने के लिये
क्रोधित सूर्य के कोप से आदग्ध
पथिकों को
आँचल मे शरण देने के लिये
सिर्फ़ बसंत मे जीना
बसंत को जीना
ही तो नही है जिंदगी
वरन्
क्रूर मौसमों के शीत-ताप
सह कर भी
बचाये रखना
थोड़ी सी सुगंध, थोड़ी हरीतिमा
थोड़ी सी आस्था
और
उतनी ही शिद्दत से
बसंत का इंतजार करना
भी तो जिंदगी है
हाँ यही तो गाती है
ठिगनी बंजारन चिड़िया
शायद!
तमाम गैरजरूरी चीजेंगुम होती जाती हैं घर मे,
दबे पाँवहमारी बेखबर नजरों की मसरूफ़ियत से परेजैसे बाबू जी की एच एम टी घड़ीअम्मा का मोटा चश्माउनके जाने के बादखो जाते हैं कहींपुराने जूते,
बूढ़े फ़ाउन्टेन पेन,
पुरानी बारिशों की गंधहमारी जिंदगी की अंधी गलियों मेहर जगह कब्जा करती जाती हैंहमारी चौकन्नी जरूरतें,
लालसायेंअलमारी मेपीछे खिसकती जाती हैंकरीने से रखी कॉमिक्स,
जीती हुई गेंदे,
पुरानी डायरीज्,
मर्फ़ी का रेडियोबिस्मिला खाँशायदकिसी भूली हुई पुरानी किताब मेआज भी सहेजे रखे होंकिसी बसंत के सूखे फूल,
तितलियों के रंगीन पर,
एक मोरपंख,
बचपन के सालकिसी कोने मे औंधा लेटा हो,
रूठा हुआधूल भरा गंदला टैडी बियरसालों लम्बी उम्मीद मेकि कोई मना लेगा आ कर उसेया अभी भी किसी बंद दराज मे रखे हों,
सुरक्षितकँवारे डाकटिकट,
एंग्री यंग-
मैन के स्टिकर्स,
टूटी बाँसुरी,
पच्चीस पैसे के सिक्के,
नीली मूँछों वाली मुस्कराती माधुरी दीक्षित,बहन से छीना बबलगमढूँढ लिये जाने की बाट जोहते हुएशायदकिसी गुफ़ा मे आज भी टंगा होसोने के पिँजड़े मे बन्द तोताजिसमे थी उस भयानक राक्षस की जानजिससे डरना हमें अच्छा लगता थादुनियादारी के मेले मेएक-
एक कर बिछड़ते जाते हैं हमसेबचपन के दोस्त,
लूटी हुई पतंगें,
जीते हुए कंचेरंगीन फ़िरकियाँ,
शरारती गुलेलेंपरी की जादुई छड़ेंमकानों के कंधों पे सवार मकानों के झुण्ड मेअब नही उझकता है,
छत पर से चालाक चंदाअब नही पसरती आँगन मे,
जाड़े की आलसी धूपधुँधले होते जाते हैं धीरे-
धीरेबाबा की तस्वीर के चटख रंगदादी की नजर की तरहहमारी आँखों को परिधि से परेख्वाबों के रंग बदलते जाते हैं एक-
एक करबदलते मौसमों के साथबदलती जरूरतों के साथऔर एक-
एक करआँखों की देहलीज से बाहर चले जाते हैं,
सिर झुकाएगुजिश्ता मौसमों के रंगकुछ महकते हुए रूमालखट्टी इमली का चरपरा स्वादहमें घेर कर रखता है टी वी का कर्कश शोरऔर हमारे जेहन की साँकलें बजा कर लौट जाती हैं वापसन जाने कितनी पूनम की रातेंपूरब की कितनी वासंती हवाएंचैत्र की कितनी ओस-
भीगी सुबहेंबेसाख्ता बारिशेंलाल घेरों मे कैद रह जाती हैं तारीखेंऔर बदल दिये जाते हैं कैलेंडरदरअस्लयह विस्मृति का गहरा रिसाइकल बिन हैआपाधापी का गहन ब्लैक-
होलजिसमे समाती जाती हैं सारी गैर-
जरूरी चीजेंऔर हमें खबर नही होतीहमें पता नही चलताऔर किसी दिन यूँ हीविस्मृति के गहरे रिसाइकिल बिन मेआपाधापी के गहन ब्लैक-
होल मेसमा जाएंगे हम भीऔर दुनिया को खबर नही होगीदुनिया को पता नही चलेगाऔर बदल दिया जाएगा कैलेंडर.
(
हिंद-युग्म पर पूर्व प्रकाशित)
(चित्र आभार-गूगल)