Sunday, April 18, 2010

एक नया अह्द चलो आज उठाया जाये: अज़मल जी की ग़ज़ल

तो इस बार पेश-ए-नज़र है एक युवा और बेहद प्रतिभाशाली शायर अज़मल हुसैन खान ’माहक’ की एक खूबसूरत ग़ज़ल।
लख्ननऊ मे रहने वाले अज़मल साहब पेशे से फीजिओथेरिपिस्ट हैं और साहित्य से खासा जुड़ाव रखते हैं। हिंदी और अंग्रेजी के अलावा उर्दू और फ़ारसी पर अधिकार रखने के साथ इनका संस्कृत, अरबी व अन्य भाषाओं के प्रति भी रुझान है। मेरी खुशकिस्मती रही कि वो मेरे सहपाठी और बेहद अजीज दोस्त रहे हैं। स्वभाव से बेहद विनम्र और शर्मीले से अज़मल साहब अक्सर अपने लेखन को सार्वजनिक करने से बचते रहे हैं, मगर ब्लॉग जगत पर उनकी ताजी आमद के बाद मैं उम्मीद करता हूँ कि उनके ब्लॉग मेरी नज़र पर हमें कुछ नया और अच्छा पढ़ने को मिलता रहेगा।
फ़िलहाल प्रस्तुत है उनकी कलम की एक बानगी देती यह ग़ज़ल जो मुश्किल वक्त के मुकाबिल जिंदगी की उम्मीदों भरी परवाज को स्वर देती है और ज़ेहन पर लगे डर, संशय और के जालों को हटा कर एक रोशनी से भरी सकारात्मकता का आह्वान करती है।


एक नया अहद चलो आज उठाया जाये

दिल के छालों को न अब दिल मे दबाया जाये ।


लाख जुल्मात सही अब कोई परवाह नहीं

जो है दर-परदा उसे सब को दिखाया जाये ।


अपने जज़्बो को मुसलसल मसल के देख लिया

अब जो है दिल में ज़माने को बताया जाये ।


दिल जो ग़मगीन तरानों से था आलूदा

उसके पन्नो पे नया गीत सज़ाया जाये ।


ज़ब्त करते हुये हम आ गये थे दूर बहुत

इक नई राह पे अब ख़ुद को बढ़ाया जाये ।


बेसबब दी नहीं माबूद ने सांसे ’माहक’

फिर तो लाज़िम है कि ये कर्ज़ चुकाया जाये ।




(अहद- प्रतिज्ञा, वादा; दर-पर्दा- पर्दे के अंदर, मुसलसल- निरंतर; आलूदा- लिप्त; माबूद- ईश्वर)
Related Posts with Thumbnails