२३ मार्च का दिन हिंदुस्तान की तारीख मे बेहद खास है। इस दिन आजादी के तीन दीवानों ने शहादत के गले मे हार डाल दिया था। जिन शहीदों ने अपनी हर साँस मुल्क के वास्ते निसार कर दी हो, हमारी आजादी का हर एक पल उनकी शहादत का ऋणी है। इसलिये उनकी स्मृति के लिये साल का सिर्फ़ एक दिन मुकर्रर रखना एक मजाक लगता है। मगर बाजार द्वारा प्रायोजित उत्सवों वाले नशीले दिवसों से बेतरह भरे हमारे कैलेंडरों मे २३ मार्च का दिन किसी ’वेक-अप अलार्म’ की तरह आता है। हमारा वक्त तबसे उन्नासी बरसों के पत्थर पार करने के बाद आज जब पलट कर देखता है तो उन तमाम क्रांतिवीरों की शहादत की प्रासंगिकता अब पहले से भी बढ़ जाती है।
इसी खास मौके पर भगत सिंह, खुदीराम बोस और राजगुरु ही नही ऐसे तमाम बलिदानियों की शहादत को याद करते हुए मैं अपने पसंदीदा क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधू ’पाश’ की एक कविता रख रहा हूँ जो उन्होने २३ मार्च १९८२ को शहीद दिवस के मौके पर लिखी थी। यह भी नियति का एक खेल था कि ठीक दो साल बाद इसी दिन वो भी खालिस्तानी आतंकियों की गोली का शिकार हो कर शहीद हो गये थे। प्रस्तुत है पाश की यह कविता इस उम्मीद के साथ कि उन बलिदानियों की स्मृति शायद हमारी रगों मे बहने वाले द्रव्य मे उन वतनपरस्तों के खून का रंग और गर्मी पैदा कर सके।
उसकी शहादत के बाद बाकी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताजा मुंदी पलकें देश मे सिमटती जा रही झांकी की
देश सारा बच रहा साकी
उसके चले जाने के बाद
उसकी शहादत के बाद
अपने भीतर खुलती खिड़की में
लोगों की आवाजें जम गयीं
उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चेहरे से आँसू नही, नाक पोंछी
गला साफ़ कर बोलने की
बोलते ही जाने की मशक की
उससे संबंधित अपनी उस शहादत के बाद
लोगों के घरों मे
उनके तकियों मे छिपे हुए
कपड़े की महक की तरह बिखर गया
शहीद होने की घड़ी मे
वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह निस्तेज नही था ।
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