पहाड़ की असीम उँचाइयों को
बदलते मौसमों की खबर नही होती
पहाड़ को उँचाई से ज़मीन पर कुछ नही दिखता
न पेड़ न इंसान
न फूल न भगवान.
दुनिया से कोई मतलब भी नही रहता पहाड़ को
कपड़े बदलती रहती है दुनिया
बेखबर रहता है पहाड़
कभी थक के जो करवट भी ले लेता है पहाड़
थोड़ी सी और बदल जाती है दुनिया
और पहाड़ को फिर पता नही चलता.
और पहाड़ के तले
छोटे इंसान
अपने छोटे-छोटे सुख और छोटे-छोटे दुःख
जी लेते हैं
अपनी छोटी ज़िंदगी मे
और मर जाते हैं
कोई छोटी मौत
अचल खड़ा रहता है पहाड़.
वक्त ठहर जाता है
पहाड़ की निर्जन चोटियों पर
किसी भटके हुए
अभिशप्त बादल के टुकड़े के मानिंद.
कोई रास्ता नही जाता
पहाड़ के उस पार.
पहाड़ के सीने मे बेचैन साँस सी
उलझ-उलझ जाती है
हाँफ़ती, थकी-माँदी हवा
पहाड़ के जर्जर फेफ़डों मे
कफ़ के थक्के सा ठहर जाता है
एक सख़्त सा पथरीला मौसम.
न जाने किसने
पहाड़ के गले मे खूंटे सा
बाँध दिया है एक सूरज,
दिन भर चक्कर काटता है
पहाड़ के चारो ओर
बैल की तरह,
चुप खड़ा रहता है पहाड़
एड़ियों पर उचकता सुबह का सूरज
क्या देख पाता होगा पहाड़ के पार का अँधेरा?
किसी को नही दिखते
पहाड़ के कलेजे मे छुपे
पहाड़ से मूक दुःख
पहाड़ पर बारिश की तरह.
कितनी गुफ़ाओं मे
सदियों पुराना खोखला अंधेरा
छुपाये रहता है पहाड़,
हाँ, शायद कभी
रात में चीखता हो पहाड़
और खुद से ही टकरा कर
वापस आ जाती हो चीख
उसके पास
गूँजती हुई.
या शायद नदियाँ गवाह होती हों
पहाड़ के फूट-फूट कर रोने की
फिर क्यों छोड देती हैं वो
पहाड़ को
उदास, अकेला !
पत्थर, बर्फ़ और पानी से बनी होती है
पहाड़ की किस्मत.
पहाड़ का कोई दोस्त नही होता है
कोई पहाड़ के कंधे पर
सर रख कर नही रोता है
किससे अपना सुख-दुःख
बाँटता होगा पहाड़?
पहाड़ जैसे लोगों के लिये भी
जिंदगी क्या पहाड़ सी नही हो जाती होगी?