Friday, September 25, 2009

मैं खुद से बातें करता हूँ


कितने दिन के बाद मिला हूँ
मैं खुद से बातें करता हूँ

तेरा हाल मुझे मालुम है
तू बतला, अब मैँ कैसा हूँ

मैं तन्हा घर से निकला था
रात ढले तन्हा लौटा हूँ

टूट गया आईना दिल का
अब घर में तन्हा रहता हूँ

फटी जेब है होश हमारा
सिक्का हूँ खुद खो जाता हूँ

कब्र बदन की और तन्हाई
मैं बच्चे सा सो जाता हूँ

ख्वाब़ हैं या बस दीवारें हैं
क्या शब भर देखा करता हूँ

बिना पते के ख़त जैसा मैं
क्यूँ दर-दर भटका करता हूँ

मेला-झूला-जादू, दुनिया
बच्चा हूँ मैं, खो जाता हूँ

दर्द है या दीवानापन है
हँसते-हँसते रो पड़ता हूँ

दिल के भीतर सर्द अँधेरा
मैं तुझको ढूँढा करता हुँ

भूल गया बाजार मे मुझको
मैं तेरे घर का रस्ता हूँ


(यह रचना प्रख्यात शायर मरहूम नासिर काज़मी साहब को समर्पित है)

Saturday, September 19, 2009

पहाड़ को नही पता

पहाड़ की असीम उँचाइयों को
बदलते मौसमों की खबर नही होती

पहाड़ को उँचाई से ज़मीन पर कुछ नही दिखता
न पेड़ न इंसान
न फूल न भगवान.
दुनिया से कोई मतलब भी नही रहता पहाड़ को
कपड़े बदलती रहती है दुनिया
बेखबर रहता है पहाड़
कभी थक के जो करवट भी ले लेता है पहाड़
थोड़ी सी और बदल जाती है दुनिया
और पहाड़ को फिर पता नही चलता.

और पहाड़ के तले
छोटे इंसान
अपने छोटे-छोटे सुख और छोटे-छोटे दुःख
जी लेते हैं
अपनी छोटी ज़िंदगी मे
और मर जाते हैं
कोई छोटी मौत
अचल खड़ा रहता है पहाड़.

वक्त ठहर जाता है
पहाड़ की निर्जन चोटियों पर
किसी भटके हुए
अभिशप्त बादल के टुकड़े के मानिंद.
कोई रास्ता नही जाता
पहाड़ के उस पार.

पहाड़ के सीने मे बेचैन साँस सी
उलझ-उलझ जाती है
हाँफ़ती, थकी-माँदी हवा
पहाड़ के जर्जर फेफ़डों मे
कफ़ के थक्के सा ठहर जाता है
एक सख़्त सा पथरीला मौसम.

न जाने किसने
पहाड़ के गले मे खूंटे सा
बाँध दिया है एक सूरज,
दिन भर चक्कर काटता है
पहाड़ के चारो ओर
बैल की तरह,
चुप खड़ा रहता है पहाड़
एड़ियों पर उचकता सुबह का सूरज
क्या देख पाता होगा पहाड़ के पार का अँधेरा?

किसी को नही दिखते
पहाड़ के कलेजे मे छुपे
पहाड़ से मूक दुःख
पहाड़ पर बारिश की तरह.
कितनी गुफ़ाओं मे
सदियों पुराना खोखला अंधेरा
छुपाये रहता है पहाड़,
हाँ, शायद कभी
रात में चीखता हो पहाड़
और खुद से ही टकरा कर
वापस आ जाती हो चीख
उसके पास
गूँजती हुई.
या शायद नदियाँ गवाह होती हों
पहाड़ के फूट-फूट कर रोने की
फिर क्यों छोड देती हैं वो
पहाड़ को
उदास, अकेला !

पत्थर, बर्फ़ और पानी से बनी होती है
पहाड़ की किस्मत.

पहाड़ का कोई दोस्त नही होता है
कोई पहाड़ के कंधे पर
सर रख कर नही रोता है
किससे अपना सुख-दुःख
बाँटता होगा पहाड़?

पहाड़ जैसे लोगों के लिये भी
जिंदगी क्या पहाड़ सी नही हो जाती होगी?

Friday, September 11, 2009

बहते पानी पे तेरा नाम लिखा करते हैं

बहते पानी पे तेरा नाम लिखा करते हैं
लब-ए-खा़मोश का अंजाम लिखा करते हैं

कितना चुपचाप गुजरता है मौसम का सफ़र
तन्हा दिन और उदास शाम लिखा करते हैं

काश, इक बार तो वो ख़त की इबारत पढ़ते
अपनी आँखों मे सुबह-ओ-शाम लिखा करते हैं

लब-ए-बेताब की यह तिश्नगी मुक़द्दर है
अश्क बस बेबसी का जाम लिखा करते हैं

जमाने से सही, उनको पर खबर तो मिली
इश्क़ मे रुसबाई को ईनाम लिखा करते हैं

रात जलते हैं, सहर होती है बुझ जाते हैं
हम सितारों को दिल-ए-नाक़ाम लिखा करते हैं

कभी हम खुद से बिना बात रूठ जाते हैं
कभी खुद को ही ख़त गुमनाम लिखा करते हैं

लौट भी आओ, अब तन्हा नही रहा जाता
जिंदगी तुझको हम पैगाम लिखा करते हैं.

Sunday, September 6, 2009

इस क्षण का दाह

जब तेरे होठों के सुर्ख अंगारों पे
छा जाते हैं
मेरे होठों के नर्म बादल
जब तेरी आँखों की आँच को
ढक लेते है
मेरे अक्स के ठंडे साये
जब पिघल जाता है
मेरी खामोशी का बेचैन आसमान
मुझमें

जब खो जाते हैं
सारे शब्द
सारी दिशायें,
सारे संत्रास
अगम शून्य मे

तब
हमारे होठों के बीच
पलता है
एक अव्यक्त पारदर्शी मौन
तब
तुम्हारी आँखों के जल मे
डूब जाता हूं मैं
थके सूर्य सा
तब
साँझ से रंग बदलते हैं
तुम्हारी आँखों मे
उभरते हैं बिम्ब, स्वप्न से,
फिर पिघल जाते हैं
सप्तवर्णी स्वर्ण में

तब
जी लेते हैं हम
तोड कर समय-बन्धन
एक पल, एक प्रहर, एक वर्ष,
एक शती
एक युग
एक कल्प
एक क्षण मे

क्या समय के उस पार भी है कोई
इच्छाओं का आकाश
जिसमे समा जाये
मेरी सारी अत्रप्ति
आकुलता
अपराध !

दे दो मुझे
अदम्य दुःखों की धरा
मत छीनो मुझसे
मेरा क्षण भर का स्वप्नाकाश
ले लो
मेरे सारे सुखोँ की उम्र
मत छीनो मुझसे
इस क्षण का दाह
इस क्षण का ताप
जल जाने दो मुझे
क्षण भर की अग्नि मे

जी लेने दो
इस एक पल में
बस
फिर मर जाने दो
मुझे.

Wednesday, September 2, 2009

तेरी खु़शबू की इक गली

कुछ मेरे ख़याल का आवारापन,
कुछ तेरी याद मनचली तो थी

कुछ तो आँखों मे दर्द था गहरा,
कुछ लबों पर हँसी खिली तो थी

मैं फ़रेब-ए-निगाह समझा था,
राह मे एक खुशी मिली तो थी

फ़लक से टूटा वो तारा न मिला,
रात आँखों मे ही ढली तो थी

ख्वाहिशों के बुझे चिरागों में,
रूह शब भर मेरी जली तो थी

मेरी साँसों के शहर मे जि़न्दा,
तेरी खु़शबू की इक गली तो थी

तेरी आँखों को नदी होना था,
प्यास लब पर मेरे पली तो थी

थक गया कारवाँ साँसों का,
मंजिल की झलक मिली तो थी.
Related Posts with Thumbnails