Friday, October 30, 2009

बवालों सी रातें


फ़सादों से दिन हैं, बवालों सी रातें
जवानी की सरकश मिसालों सी रातें


अदद नौकरी की फ़िकर मे कटा दिन
कटें कैसे, भूखे सवालों सी रातें


उजालों मे झुलसे नजर के शज़र जब
बनी हम-सफ़र, हमखयालों सी रातें


जो खिलता अगर तेरी कुर्बत का चंदा
निखर जातीं दिन के उजालों सी रातें


हो जायेगी सूनी
ये महफ़िल भी इक दिन
रहेंगी बची, प्यासे प्यालों सी रातें


ये शाम-ओ-सहर का हटाओ भी परदा
खिलें दिन मे, शर्माये गालों सी रातें


बिखर जायें छन-छन, सितारे फ़लक पे
खुलें जब, तेरे काले बालों सी रातें


गम-ए-बेवफ़ाई, फिर उस पे ’रिसेशन’
दिवानों की निकलीं दिवालों सी रातें



(सरकश- ढीठ, विद्रोही; शजर- वृक्ष; कुर्बत- साथ, निकटता )

(हरकीरत जी और गौतम साहब की सलाह पर संशोधित)

Monday, October 12, 2009

त्रिवेणी-नुमा - १

तेरी पहचान के रैपर्स उड़ा दिये हवा में, हँस कर
वक्त ने तेरे नाम की टॉफ़ी, फिर लबों पे रख ली है

मेरी नाकामियों मुबारक हो, बस वो भी पिघल जायेगी

*****

बचपन में, मेले से, लाया था एक मिट्टी की गुल्लक
रोज डालता था कुछ सिक्के, भरता था छोटी सी गुल्लक

भरते-भरते पैसे, जाने कब खाली कर दी उम्र की गुल्लक

*****

कहते हैं सिकुड़ के माउस बराबर रह गयी है बेचारी दुनिया
इंटरनेट, केबल, मोबाइल्स ने खत्म कर दी हैं सारी दूरियाँ

हाँ, तेरा दिल ही छूट गया होगा शायद, नेटवर्क कवरेज से बाहर

*****

(क्षेपक)

बुद्धत्व

पागल ही तो है
वह आवारा कवि
बेचैन हरदम, भावुक
जो पढ़ लेता है कुछ बुरी कविताएं
और उदास हो जाता है
देखता है कुछ बुरे उज़बक ख्वाब
और रो देता है
कैसे समझाऊँ उसे
कि रोना कितना तक़लीफ़देह होता है
और दिल ही दिल मे घुटना
सेहत के लिये कितना नुकसानदायक
कैसे बताऊँ उसे
कि यह जिंदगी भी बस
एक ख्वाब ही तो है;

वो देखता है कुछ मेरी आँखों मे
और फिर उदास हो जाता है
मुंह फ़िरा लेता है
क्या पता है उसे यह सब ?
मगर
मगर अब आँसू मेरी आँखों मे क्यों
या..
शायद टूटने वाली है क्या
मेरी भी नींद ?

( यह पोस्ट हमारे प्यारे दोस्त और बेहद उम्दा कवि दर्पण साहब को समर्पित )

Thursday, October 8, 2009

बेगुनाह होने के गुनाह मे

हाँ
इस सतरंगी, खूबसूरत ख़्वाबों वाली
खुदगर्ज़ दुनिया से
बस ढेला भर की दूरी पर ही
सफ़ेद कालर वाले आदमखोर अँधेरे ने
उस भदेस, निरीह बस्ती पर ढाये थे
पुलिसिया जुर्म,
हाँ
वहीं कहीं पर था
रात के ग़लीज़ गुनाहों का गवाह
एक डरा हुआ दश्त
जिसका गला काट कर उन्होने
उसकी लाश पर उगा दिया था
एक विद्रूप सा ठूँठों का शहर;

वहीं कहीं पर
कुछ लपलपाती लंपट जुबानों ने
कुछ पैने हिंसक नाखूनों ने
कुछ लोहे के सख्त हाँथों ने
दबोच लिया था
एक अशक्त, बूढ़े मौसम की
इकलौती, जवान हवा को,
वहीं कहीं पर
उन्होने गला घोंट कर की थी
एक मासूम चीख की भ्रूणहत्या;

हाँ
यहीं पर
कुछ सुलगते शब्दों को
सेंसर के सींखचे मे ठूँसा गया था,
यहीं पर
कुछ जवान बगावती ख्वाबों को
आँखों की देहलीज से
ताउम्र जलावतन कर दिया गया था,
यहीं पर
एक पागल कलम की रगों मे
रोशनाई की बजाय जहर भरा गया था,
यहीं पर
ज़मीन की कोख़ मे
बारूद बो कर बंजर कर दिया गया था,
यहीं पर
कुछ गुमनाम शख़्सों को
लटकाया गया था
लोहे की सख़्त सलीबों पर
जिनकी जुबान ने
पालतू होने से इनकार कर दिया था

इसी जगह पर
बेरहम, बहरे बूटों ने
बेजुबान, अधेड़ पीठों पर
कायम की थी
एक नृशंस सल्तनत,
इसी जगह पर
एक समूची भाषा को
जिन्दा दफ़्न कर दिया गया था
आदिम होने के अपराध में,
इसी जगह पर
कुछ ज़मीनी खुदाओं की बलि दी गयी थी
किन्ही आसमानी ख़ुदाओं के नाम पर,
इसी जगह पर
माज़ी के एक पुराने पुल को
जला दिया गया था
कि एक अजन्मे कल को
कभी न दिखें
एक मृतप्राय कल के
रक्तरंजित पदचिह्न
किसी अंधी नैतिकता के
कोमल पाँवों मे न चुभें
सच के काँटे;

हाँ
यहीं
इसी जगह पर
एक पूरी सभ्यता को
असभ्य होने के अपराध में
बेगुनाह होने के गुनाह मे
दे दिया गया था
मृत्युदंड.

मगर हाँ
इसी जगह पर
कल

बारूद की पकी फ़स्लों मे
आग के सुर्ख फूलों को
खिलना है,
इसी जगह पर
कल
रात की कोख से
रोशनी के किसी बीज को
आग-हवा-पानी-मिट्टी पा कर
अखुँआना है
बनना है
कल का तिमिरनाशी, सुलगता सूरज,
इसी जगह पर
कल
लोहे की सख़्त सलीबों पर लटके
कुछ गुमनाम शख़्सों को
बनना है
मुस्तक़बिल का मसीहा ।
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