आँखें हैं
एक गुनगुनी नदी बहती है नींद की
आँखों मे
सतरंगे रेशमी स्वप्न
के पालो वाली कत्थई नावें तैरती हैं
नदी के वक्ष पर
नाव मे रंगीन जगर-मगर
जादुई स्मृतियों की कंदीलें हैं
कंदील मे दिप-दिप चमकती
रोशनी से धुली, विस्मृत
आँखें हैं
**********************************
देख्नना
एक शब्द को एकटक
देर तक घूर कर देखते रहना
इतना
कि उघड़ जाये सारे अर्थों के छिलके
वाष्पित हो जाये उद्गम, इतिहास
बचा रहे, अर्थ-काल से परे
सिर्फ़ शब्द
विवस्त्र
घुलता जाये कुछ
आँख की पुतलियों मे
जान लेना
थोड़ा अँधेरा और गाढ़ा कर जाता है
आत्मा के गहन अँधेरे मे
**********************************
भागता रहा जीवन के अरण्य मे
थक कर गिरा
पराजित
सिर्फ़ चाबियाँ बची थी ठंडी
पसीजी मुट्ठियों मे
कुछ चाबियाँ प्रवाहित कर दीं
पश्चाताप की अग्निगंगा मे
रिश्तों की अलंघ्य दीवार मे चिन दी चंद चाबियाँ
कुछ चाबियाँ छीन कर हाथों से
नियति की लहरें बहुत दूर ले गयीं
हमेशा के लिये
विस्मृति के अंधे कुएँ मे फेंक दी
बची चाबियाँ
आँसू पोंछ लिये
मगर कहीं गुम हुई है कोई चाबी
जीवन की आपाधापी मे
किसी प्रतीक्षारत बंद द्वार के पीछे
अभी भी बची होगी
दिये की एक टिमटिमाती लौ
अभी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है
(चित्र: आदम और इव: मार्क शेगाल)
अपूर्व भाई...बहुत सुंदर भाव...बढ़िया कविता प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद जी!!!
ReplyDeleteइस कविता की ज़मीन और फ़लक दोनों काफी बड़े हैं ।
ReplyDeleteशुक्रिया !
बहुत सुन्दर! भाव पूर्ण प्रस्तुति।
ReplyDeleteकोशिश कर रहा हूँ तुम्हारे शब्दों को उधेड़ कर उस अँधेरे तक पहुँचने की..देखूँ कब सफलता मिलती है
ReplyDeleteशैली, कहने में अनूठे, दूसरों से भिन्न फॉर्मेट अपनाते हैं, चाहे कविता लंबी हो या छोटी। कविता का सलीका, तरीक़ा, रखरखाव, उनका अपना है। नई विधि-प्रविधि, जिसमें उनका चरित्र झांकता है। यह कविताकार मौलिक सर्जक है।
ReplyDeleteदिनों बाद खूबसूरत कविता पढने को मिली....बहुत खूब.. !अत्यंत प्रभावी !!
ReplyDeleteसमय हो तो पढ़ें
मीडिया में मुस्लिम औरत http://hamzabaan.blogspot.com/2010/07/blog-post_938.html
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteइसे 01.08.10 की चर्चा मंच में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/
..मगर कहीं गुम हुई है कोई चाबी जीवन की आपाधापी मे..
ReplyDelete..वाह! यही एहसास दिए की लौ को बुझने नहीं देता..इसका मिट जाना खुद को गहरे कुएँ में फेंक देने के समान है.
..कहीं यही वो चाभी तो नहीं जो नींद की गुनगुनी नदी के वक्ष पर तैरती नाव में रखे जादुई स्मृतियों के कंदीलों में, दिप-दिप चमकती रोशनी से धुली विस्मृत आँखें ले उड़ी हैं !
कविता दरअसल कहना भर नहीं है ......ये फ्रीज़ शोट है .मन के उस हिस्से का.....जो गुजरता है एक वक़्त के दरमियाँ.......
ReplyDeleteदेख्नना
एक शब्द को एकटक
देर तक घूर कर देखते रहना
इतना
कि उघड़ जाये सारे अर्थों के छिलके
ओर कभी कभी अर्थ भी बदल जाते है .....एक ही शब्द के ......अपने अपने हिस्से उठाये ....
थोड़ा अँधेरा और गाढ़ा कर जाता है
आत्मा के गहन अँधेरे मे
उस टोर्च को लिए जो सिर्फ रौशनी फेंकती है....
पश्चाताप की अग्निगंगा मे
रिश्तों की अलंघ्य दीवार मे चिन दी चंद चाबियाँ
हम सबके भीतर एक ऐसा कमरा है जिसे हम किसी से नहीं बांटते ...जमीर से असहमत ...पुलंदो का . ढेर वहां वक़्त के साथ बढ़ा हो रहा है ...कभी कभी हम उसकी खिड़की भर खोलते है बस.......सच तो ये के उसकी चाभी हम कभी नहीं फेंकते.सिर्फ छुपा के रखते है
and for this line
भी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है
wow!!
थक कर गिरा
ReplyDeleteपराजित
सिर्फ़ चाबियाँ बची थी ठंडी
पसीजी मुट्ठियों मे
कुछ चाबियाँ प्रवाहित कर दीं
पश्चाताप की अग्निगंगा मे
रिश्तों की अलंघ्य दीवार मे चिन दी चंद चाबियाँ
ye paseeji mutthiyon ki chabiyaan....kuchh kapaat aapne bhi khole...dino ke intjaar ke baad hi sahi
पहली बात तो ये मियाँ कि ....इतने दिनों तक कहाँ थे ?
ReplyDeleteऔर जब आये हो तो मन में उथल-पुथल मचा दी....
रात की पेशानी पर ख्वाब की
ReplyDeleteकुछ आडी तिरछी लकीरे है जाने पडी कबसे
कुछ गाढी तो कुछ
हल्की हुई है वक्त के साथ
लकीरे भँवरजाल सी पगडंडियाँ है
कंटिली बिरानियो की दश्त मे
चुभती ख्वाहिशो और आरमानो
से कई खराशे मिली है
उसकी पेशानी पर
जो सबूत है
उसके उमरदराज होने की !
totally speechless...
ReplyDeleteआँखें एक गुनगुनी नदी है
ReplyDeleteऔर अपना सफ़र कुछ इस तरह तय करती है कि नदी उसकी आँखों में सिमट आती है.
वाकई जादू भरी और दिप दिप करती कंदीलों जैसी.
शब्द के कमाल को अनावृत करते हुए शब्द. इतिहास की भोथरी व्याख्याओं को उचित सम्मान देते हुए शब्द.
उघड़ जाये सारे अर्थों के छिलके
वाष्पित हो जाये उद्गम, इतिहास
बचा रहे, अर्थ-काल से परे
सिर्फ़ शब्द
विवस्त्र
गुम हुई चाबियाँ... मुझे जीवन के किसी खोये हुए हिस्से सी लगी, जैसे छोड़ा और ठुकराया हुआ या फिर दान किया हुआ या फिर स्वेच्छा से त्यागा गया सहज है. स्मृति लोप के लिए भी स्वीकार्य है लेकिन गुमा हुआ कुछ अँधेरे के भीतर का गहरा अँधेरा होता है उसी को आख्यायित करती हुई कविता है.
अभी भी बची होगी
दिये की एक टिमटिमाती लौ
अभी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है.
फुटकर है किन्तु थोक से बहुत बेहतर हैं. बधाई और दिल से कहूं तो मुझे बहुत पसंद भी आई.
थक कर गिरा
ReplyDeleteपराजित
सिर्फ़ चाबियाँ बची थी ठंडी
पसीजी मुट्ठियों मे
कुछ चाबियाँ प्रवाहित कर दीं
पश्चाताप की अग्निगंगा मे
रिश्तों की अलंघ्य दीवार मे चिन दी चंद चाबियाँ
बहुत अच्छी कुछ अजीब सी बात है हर एक प्रस्तुति में
सारे फुटकर एक से बढ़ कर एक...बहुत अच्छा लगा पढ़ना ..
ReplyDeleteआज ही आपके ब्लॉग पर आया और एक ताज़ा पोस्ट यहाँ पर थी. आपकी कविता मुझे उस thought process की याद दिलाती है, जिसमे मैं आज से ३ महीने पहले था. इसलिए टिपण्णी करने चला आया, आपको फोलो करना शुरू कर रहा हूँ.
ReplyDelete"अभी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है"
इस लाइन ने सबकुछ कह दिया,
आभार
मनोज खत्री
पहली वाली पढ़ कर ही मज़ा आ गया, मतलब पढने में रोचकता जगा गया...
ReplyDelete"कंदील मे दिप-दिप चमकती "
भाई यह बिम्ब तो बेहतरीन है. बहुत सुन्दर
तीसरा तो लगता है मेरा हाल -ए- दिल लिखा है
भागता रहा जीवन के अरण्य मे
थक कर गिरा
पराजित
सिर्फ़ चाबियाँ बची थी ठंडी
स्वीकार.
मगर कहीं गुम हुई है कोई चाबी
जीवन की आपाधापी मे
किसी प्रतीक्षारत बंद द्वार के पीछे
अभी भी बची होगी
दिये की एक टिमटिमाती लौ
अभी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है
मरहबा... सुभानाल्ल्लाह
शब्दों का जादुई संसार रच दिया है आपने....बेहतरीन...वाह.,....
ReplyDeleteनीरज
कविता लौटती है
ReplyDeleteलौटती हुई कविता पे नज़र पड़ती है
और जब पूरी कविता नज़र आती है
तब देखता हूँ
उसकी उँगलियों में कवि की उंगलियाँ हैं.....
अभी फेसबुक पर आपके ब्लॉग को शेयर करके आ रहा हूँ , आज भी आपकी कविताओं को पढ़कर पूर्ववत खुशी हुई है ! इन कविताओं से गुजरना साहित्य की उसी ऊर्जावान-धारा में मज्जन करना है जिसकी स्नेहिल-गतिशीलता आपकी पहली कविता में व्यक्त है !
ReplyDeleteपहली कविता में आँख , नींद , नदी , स्मृतियों को इकट्ठा करके बनाया गया सघन बिम्ब प्रभावकारी है .. 'नींद' की बहती गुनगुनी नदी में जादुई 'स्मृति' की कंदीलों की ख्याल बना रहना कवि के अचूक्पने का प्रमाण है , नींद में भी स्मृति का धर्म निभाते जाना .. कुछ 'पहरुए सावधान रहना' की मुद्रा ! .. सार्थक दृष्टि की उत्तानता ! .. सुन्दर !
और पहली कविता का ही आशावाद अंत तक ( तीसरी और अंतिम कविता में ) बना हुआ है जहां विश्वास है कि दिए की टिमटिमाती लौ में रात की थोड़ी सी उम्र बची हुई है ! इन तीनों अलग-अलग सी कविताओं की अन्विति का यह आधार मुझे दिख रहा है ! दिए की लौ में चमक जायेगी चाबी , प्रतीक्षारत और सृजनरत नेत्रों की आकांक्षी !
युवावस्था की अंतिम की कुछेक सीढ़ियों पर खड़े युवक ही स्थिति से इन कविताओं की व्याख्या नहीं कर पा रहा हूँ ! बावजूद कि चाबियों के खोने का सिलसिला कुछ जोड़ता सा लग रहा है ! मगर फिर भी .... !
बीच की कविता ( दूसरी ) का तुक भी दोनों कविताओं के बीच का ही है , न पहली पर न ही तीसरी पर ! अनुभूति - शब्द - अर्थ जैसा ही कुछ ! दबी जुबान में कहूँ तो यहाँ कवि , समीक्षक की सीमा में भी दाखिल हो रहा है ! ............... आभार !
apoorv bhai ....teenon nazmen kamaal hain ... pahli wali nazm kuch jyada hi pasand aayi ..bimb har tarah se nayapan liye hue the... doosri wali nazm me ..arthon ke chhilke udhedna ...bhaa gaya..mere saamne kisi ka chirta bhi ubhar aayaa...shabdon ko ghoorte hue... :) bahut anand aayaa...
ReplyDeleteपहली वाली नदी में यादों का भंवर है दोस्त...
ReplyDeleteमुझे याद है जब गर्मियों की छुट्टियों में दिन की नींद के बाद बोझिल आँखें मिचमिचाते हुए,
होर्लिक्स पीते हुए,
पूरब वाली खिडकी से नज़रें बाहर वो फ्लेट्स (नैनीताल का प्ले ग्राउंड) से होते हुए,
चीड़ के पेड़ों के पार ताल में पड़ने वाली मॉल रोड की दुकानों की रौशनी पे जा के रूकती,
शाम को इक्का दुक्का पाल, बादबानी और मटमैली (और हाँ कत्थई भी ) नावें थकी थकी सी...
किसी शाम की पंछी सरीखी,
हवा में नमी,
पेड़ों कि सायं-सायं,
लगता कि सपना अब भी पूरा नहीं हुआ.
...नींद अब भी नहीं टूटी.
...उफ्फ्फ क्या दिन थे.
अब वो सब दिवा स्वप्न सा लगता है. और कभी कभी सपनों में भी आता है....
वक्त भी कितनी आश्चर्य जनक प्रक्रिया है न वो स्वप्न को वास्तविकता और वास्तविकता को स्वप्न में 'यूँ' बदल देती है.
इसलिए ही नदी के बदले ताल कहूं (गुस्ताखी मुआफ़) तो मेरे हिस्से का पूरा स्मृति-चित्र ( नैनीताल की किसी शाम का) मुझे मिल जाता है.
देख्नना... क्या ये इन्टेंश्न्ली है ?
ReplyDeleteऐसी कोई प्रक्रिया के तहत कि आपकी कविता का प्रयोग इस शब्द पर ही कर दिया जाये? ;)
वैसे वाकई में कुछ शब्दों के अर्थ इतने बायस्ड कर दिए गए हैं कि...
बहरहाल अंत की ३ लाईनें मेरी मनःस्थिति संप्रेषित करती हैं. इसलिए होंट करती हैं.
तीसरी कविता बेहतरीन...
ReplyDeleteज़ेहन से देर तक चिपकी रही.
(स्वीकारोक्ति: अपने P१ दिमाग से तीसरी कविता को छूने भर की कोशिश भी असफल रही. पर फिर भी मैट्रिक्स मूवी कि तरह पूरी तरह से न समझ आने के बावजूद भी कहीं अंतस में कुरेदती रही. खाली-मुच्ची अपनी कविता के टुकड़े से रिलेट कर रहा हूँ यूँ कि गौड़ लगा दिया :( :
कितने ज़तन से,
...मेरे पिताजी ने,
मुझे,
ये
'इमानदारी',
सी के दी थी ।
बिल्कुल मेरे नाप की ।
बड़े लंबे समय तक पहनी।
और,
कई बार,
लगाये इसमे पायबंद ,
कभी 'मुफलिसी' के,
और कभी,
'बेचारगी' के .
पर,
इसकी सिलाई,
....
....
उधड गई थी, एक दिन.
...जब,
'भूख' का खूंटा लगा इसमे.
दो लाइन बहुत प्रभावित करती हैं.
१)सिर्फ़ चाबियाँ बची थी ठंडी
पसीजी मुट्ठियों मे.
(फ़ील कर सकता हूँ इसलिए)
२) अभी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है.
(क्यूंकि शेष कविता, जितनी मेरी समझ में आई, को व्यंजना से हटाकर एक स्थूल रूप प्रदान करने कि कोशिश करती है...
बताने को...
...क्यूँ ज़रुरी हैं ठीक इस वक्त वो चाबियाँ?)
वैसे क्या अब भी दिया जल रहा होगा ? या जैसा आप कहते हैं...
आलंबन ! और कुछ नहीं !!
"हम जानते हैं जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है."
बेहतरीन अभिव्यक्तियाँ ! बधाइयाँ
teenon nazmon ne haath thame rakha....nahin choda kahin bhi.
ReplyDeletebahut khub.........:)
ReplyDeleteपहली कविता में सभी बिम्ब पहचाने परिचित होने के बावजूद इतने जादुई तरीके से मिले हुए हैं कि सोचता हूँ कविता लिखते समय हलकी सी ट्रांस की स्थिति रही हो. शायद.
ReplyDeleteबात हलकी फुलकी इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि इस कविता का असर अलग तरह का है.कंदील शब्द मेरे लिए सहज नहीं रहा है. बचपन में अक्सर जादुई किस्सालोक में ये शब्द मिलता रहा भले इसका अर्थ साधारण रहा था.अब फिर यही और ऐसे ही शब्द अपने साथ पुरानी स्मृतियों की मद्धिम आभा के साथ प्रवाहित होते दिख रहें हैं.हौले हौले.
कुछेक बार और पढूंगा.वही पानी और किनारा होगा,पर स्पर्श में नवीनता रहेगी.
ऐसे ही सौष्ठव की कविता ज्यादा भाती है.आखिर कविता कोई फोटो खींचना भर तो नहीं है.
जब तक उम्र रहेगी, दिन रहेगा।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteआज तो कमेंट पढ़ने ही आया था. जानता था आनंद आयेगा.
ReplyDeleteआँखे है..कोई अंतर यात्रा...
ReplyDeleteनदी की तलहटी में मोती सी छिपी यादें है..
आस्मां की नदी में तैरते जगमग कंदीलो से सपने..
पालो वाली कत्थई नावें दिमाग के तनाव को दूर बहा ले जाती है..
शांति...गहराई..ध्यान..
मूंदी आँखे खोलो तो जादू सा असर..धुली ..भूली आंखे है..
शब्दों को जितना ज्यादा जानते जाते है...चार किताबे पढ़ते जा रहे..समझ ज्यूँ ज्यूँ बड़ती जा रही है...आत्मा और अँधेरे में धस्ती जा रही रही है...विचारों का बोझ अँधेरे और गहरे करता जाता है...ज्यादा ज्ञान ,ज्यादा शिक्षा...ज्यादा चिंता,ज्यादा दुःख...
चाबियाँ बची है तो दिये की एक टिमटिमाती लौ भी बची है..चाबियो का बिम्ब किसी उम्मीद की निशानी है.उम्मीद है जब तक चाबियाँ है किसी न किसी ताले के खुलने की उम्मीद बंधती है..
पहली कविता जादू सी है..दूजी हकीकत और तीसरी उम्मीद..
बढ़िया अभिवियक्ति बधाई..
"..सपने देखना अच्छा लगता है..।"
ReplyDeleteऔर यह बिल्कुल वैसी ही जैसे स्मृतियां अभी जन्मी और अभी विस्मृत हुईं...किंतु उनकी लक़ीरे खींची है नदी के वक्ष पर।
"देख्नना
एक शब्द को एकटक...."
हुआ भी यही कि इसी वजह से आत्मा का अन्धेरा और गाढा हो चला है।
यह जो जीवटता की रोशनी है, दीये की लौ है..सो रात की शेष उम्र स्याह कैसे रह सकती है?
कमाल है। अपूर्वजी, सच यह है कि टिप्पणी देने की या अपनी कोई राय पेश करने की स्थिति ही नहीं बनती, और महज बेहतरीन लिख कर आत्मीय रचना का मैं अंत नहीं कर सकता। दर्शनजी और अपूर्वजी.., बस पढने और पढते रहने के लायक हैं..फिर यहां तो दोनों मौजूं हैं एक रचनाकार, दूसरा रचना पर अपनी बात कहता हुआ..शेष बचा ही क्या जो लिखा जा सके...।
apoorv ji aaj aapke blog ko dekh kar harfo ke naye jadu ko mahsus kiya hai,,,nice
ReplyDeleteuffffffffffff
ReplyDeleteइस कविता के पीछे हम जैसों के लिए एक तख्ती भी टांगनी थी भाई कि 'जलो मत.... बराबरी करो'
ReplyDeletewow ! great... bahut acha laga apki kavitaye pad kar...
ReplyDeleteMeri Nayi Kavita par aapke Comments ka intzar rahega.....
A Silent Silence : Naani ki sunaai wo kahani..
Banned Area News : Pak will overcome flood crisis: Clinton
इतने दिनों बाद अपूर्व को पढ़ने का मौका मिला| पहले फुटकर शब्द-चित्रों को देखा, फिर टिप्पणियां पढ़ी एक-एक कर, डाओ अनुराग और दर्पण की टिप्पणियों पर देर तक ठहरते हुये..बाद में लेबल पे नजर पड़ी तो "personal escapism" कुछ और देर ठिठका कर रखा अपने पास।
ReplyDeleteकल इससे पहले दर्पण की नयी कविता पढ़ने के बाद भी कुछ ऐसा ही हाल हुआ था, जैसा कि अब हो रहा है तुम्हें पढ़ने के बाद। वही सोच उठी फिर से कि अपूर्व क्या सोच रहा होगा इन कविताओं को शब्दों में ढ़ालते वक्त।
सोचता रहा...सोचता रहा...and then i gave up
personal escapism...? thats what it is?? for all of us...शब्दों की सजावट से अहसासों को रंग देने का प्रयास या ऐसा ही कुछ। पता नहीं , क्या लिखे जा रहा हूँ।
शायद इतने दिनों बाद तुम्हारा लिखा कुछ पढ़ रहा हूँ ना और इस लिखे में वो वाला अपूर्व नहीं पा रहा हूँ, जिसको मैं जानता हूँ...तो थो़ड़ी-सी झुंझलाहट हो रही है।
अपूर्व जी ... बहुत दिनों बाद आपने कुछ लिखा और उतने ही दिनों बाद मैं उसे पढ़ पाया कुछ व्यक्तिगत कारणों से दूर रहा ब्लॉग से ... आपकी फुटकर रचनाएँ भी बहुत मायने लिए हैं ...
ReplyDeleteशब्दों से अर्थ को खींच लेना ... और फिर नंगे इतिहास को अंधेरे में अपने जिस्म में समा लेना .... बहुत गहरी और अनूठी सोच को दर्शाता है कवि की ... बहुत ही मौलिक है आपकी सोच ...
चंद चाबियाँ दरअसल दिल के किसी कोने में दबी भावनाएँ जो कभी बाहर नही आ पाती ... निरन्तर प्रतीक्षा में रहती हैं द्वार खोलने की ... ताउम्र इंतेज़ार करती ....
अभी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है
ReplyDeleteअहसास फुटकर ही सही वो तो अमर्त्य होते हैं.....उनको शब्दों में पिरोकर आपने स्थायी एवं मूर्त कर दिया है. भाव बेहद खूबसूरत हैं...
देख्नना
ReplyDeleteएक शब्द को एकटक
देर तक घूर कर देखते रहना
bahut umdaa bhaavpuurn rachana
Pichhali baar jab aayi thi to page load error ke karan comment post nahi hua!
ReplyDeleteKhair in diggajon ke baad mai aur alag se kya likhun? Alfaaz nahi hain..mai dang hun!
"Bikhare Sitare" pe aapki shukrguzari ada kee hai...please dekhen!
मुझे समय नही मिला आने का, बहुत दिन के बाद आज ब्लोग पर आया तो देखा आप ने तो कमाल कर दिया.
ReplyDeleteआँखें हैं
एक गुनगुनी नदी बहती है नींद की
आँखों मे
सतरंगे रेशमी स्वप्न
के पालो वाली कत्थई नावें तैरती हैं
नदी के वक्ष पर
नाव मे रंगीन जगर-मगर
जादुई स्मृतियों की कंदीलें हैं
कंदील मे दिप-दिप चमकती
रोशनी से धुली, विस्मृत
आँखें हैं
और
अभी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है...
आज जन्माष्टमी के मौके पर एक शेर हाज़िर है
"है योमे अष्टमी दिल पर खुशी सी छाई है
किशन के जन्म की सब को बहुत बधाई है"
आपके ब्लॉग को आज चर्चामंच पर संकलित किया है.. एक बार देखिएगा जरूर..
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/
जब बहुत बातें आती हैं...तो कुछ भी नही लिखा जाता..सागर , अमरेन्द्र जी और दर्पण भाई की टिप्पणियां..उधार मांग रहा हूँ..आज यूँ ही जा रहा हूँ..पर उन पनीली आँखों के बारे में सोचे ही जा रहा हूँ. ऐसा पूर्व में कभी नही हुआ..अपूर्व..!
ReplyDelete...कहने आया था कि छ्ठी - सातवीं जो भी मान लो, उतनी बार हो गये इस पोस्ट पर आते आते पर कहूँ क्या वो अभी तक नही बुन पाया हूँ।
ReplyDeleteआज सोचा कि चलो यही बता दूं वैसे कुछ दिन पहले घर (लखीमपुर खीरी)जाना हुआ.. पहली बार शाहजहाँपुर वाले रूट से गया था.. शहर को देखा तो तुम्हारी याद हो आई...
अपूर्व्…आपकी टिप्पणियां देखकर आपकी गहराई का अनुमान लगाता रहा हूं…आज ब्लाग देखा…कौन कहता है ब्लाग पर केवल प्रतिभाहीन लोग हैं…आपसे बहुत उम्मीदें हो गयी हैं…ख़ूब मेहनत करिये…शुभकामनायें
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकहाँ हो बंधु .... आपकी कोई रचना पढ़े मुद्दत हो गयी ....
ReplyDeleteइंतज़ार है आपकी रचना का ....
स्वप्न मैं देखता नहीं नींद में, देर सवेरे देखा तो सोचा आँखें ऐसी ही होने चाहिए, जिंदगी से भरपूर दीप-दीप करती हुई. चमकती, रोशनी से धुली, विस्मृत करती हुई. और यहीं रोकती हुई...
ReplyDeleteदेख्नना
एक शब्द को एकटक
देर तक घूर कर देखते रहना
इतना
कि उघड़ जाये सारे अर्थों के छिलके
वाष्पित हो जाये उद्गम, इतिहास
बचा रहे, अर्थ-काल से परे
सिर्फ़ शब्द
विवस्त्र
घुलता जाये कुछ
आँख की पुतलियों मे
जान लेना
थोड़ा अँधेरा और गाढ़ा कर जाता है
आत्मा के गहन अँधेरे मे
....देखना भी तो ऐसा ही होना चाहिए फिर देखता और दिखता भी, क्या वैसा होता है जो कहा गया है ?
महीने के किसी खास दिन का पागलपन, बौखलाए हुए, ऐवें ही
wah .koi sabd nahi kahne ko.
ReplyDeleteअभी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है ..
ReplyDeleteक्या कहें , बस हर लाइन के साथ बंधते गए ..
दूसरी और तीसरी रचना तो ग़जब हैं ..बहुत बढ़िया :)
अभी भी रात की थोड़ी सी उम्र बाकी है !
ReplyDelete...बस इसी उम्मीद पर हर रोज़ ज़िंदगी ज़िंदा रह जाती है...
जान अटकी है लबों पर,आओ न...
http://tanhafalak.blogspot.com/2010/11/blog-post_06.html
आप अब अपनी बहुमूल्य रचनाएँ नाचीज़ पाठकों को पढ़ाना नहीं चाहते या किसी खास महूर्त के इंतज़ार में है ;)
ReplyDeletewhere are uuuuuuuuuuuuuuu............????????
ReplyDeleteहुज़ूर कुछ लिख दिया जाए अब?
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteआँखें हैं
एक गुनगुनी नदी बहती है नींद की
आँखों मे
सतरंगे रेशमी स्वप्न
के पालो वाली कत्थई नावें तैरती हैं
नदी के वक्ष पर
नाव मे रंगीन जगर-मगर
जादुई स्मृतियों की कंदीलें हैं
कंदील मे दिप-दिप चमकती
रोशनी से धुली, विस्मृत
आँखें हैं