भोर के जामुनी एकांत मे
जब रात का थका-हारा उनींदा शुक्रतारा
टूट कर गिरने को होगा अपनी नींद की भंवर मे
और सुबह की पहली ट्रेन की सीटी के बीच
शहर की नींद आखिरी अँगड़ाइयाँ ले रही होगी
मै छोड़ रहा होऊँगा
तुम्हारा शहर आखिरी बार, निःशब्द
जैसे नवंबर की ओसभीगी सुबह
चाय को छोड़ रही होती है भाप
बिना पदचाप के चुपचाप
शहर छोड़ती हुई गाड़ी का पीछा
सिर्फ़ सड़क की आवारा धूल करती है
कुछ दूर, हाँफ कर बैठ जाने तलक
और यह जानते हुए
कि हमारी यह मुलाकात
काफ़ी पी कर औंधा कर रख दिये गये
कप जैसी आखिरी है
मै इस बचे पल को काफ़ी के आखिरी घूँट की तरह
हमेशा के लिये घुलते रहने देना चाहता हूँ
जैसे कि भोर का अलार्म बजने से ठीक पहले के
स्वप्निल कामनाओं से भरे पवित्र पल
सहेज लेते हैं आखिरी मीठी नींद,
मै तुमसे कहूँगा विदा
वैसे नही जैसे कि पेड़ परिंदो को विदा कहते हैं हर सुबह
और ऋतुएँ पेड़ को कहती है विदा
बल्कि ऐसे जैसे हरापन पत्तों को कहता है
और कातर पत्ता पेड़ को कहता हैं विदा
टूट कर झरने से पहले
हाँ तुम कहना विदा
कि तीन बार कहने मे ’विदा’
दो बार का वापस लौटना भी शामिल होता है
हर रात
धो कर रख दिये जाते हैं काफ़ी के कप
बदलते रहते हैं फ़्लेवर्स हर बार, चुस्कियाँ लेते होठ
कुछ भी तो नही रहता है कप का अपना
एक ठंडी विवशता के अतिरिक्त
मै समेटूँगा शहर से अपने होने के अवशेष
खोलते हुए अपनी आवाज की स्ट्रिंग्स
तह करूँगा अपनी बची उम्र,
जलता रहेगा सपने मे लकड़ी का एक पुराना पुल
देर रात तक
चला जाऊँगा इतनी दूर
जहाँ एकांत के पत्थर पर
मौन की तरह झरती है बर्फ़
रात की काई-सनी पसलियों मे
बर्फ़ के खंजर की तरह धँसती हैं धारदार हवाएँ
जहाँ जोगी सरीखे वीतरागी ओक के वृक्ष प्रार्थनारत
धैर्यपूर्वक करते हैं अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा
और जहाँ बारिशों का बदन पसीने से नही
ओस से बना होता है
ऊँची उठती है हवा मे अकेली पतंग
टूटता है अकार्डियन की करुण धुन का माझा
आकाश की स्मृति मे कभी कुछ शेष नही रहता
तुम्हारे शहर मे
होती रहेंगी अब भी हर शाम बेतहाशा बारिशें
फूल कर झरते रहेंगे सुर्ख गुलमोहर अथाह
हवाएं तुम्हारे कालर से
उड़ा ले जायेंगी
फाड़ देंगी मेरी महक का आखिरी पुर्जा
बादल रगड़ कर धो देंगे
तुम्हारे कदमों के संग बने मेरे पाँवों के निशान
हमारी साझी सड़कों के याद्दाश्त से
एकाकी रह जायेंगे तुम्हारे पद-चिह्न
यहाँ बौने होते जायेंगे मेरे दिन
और रातें परछाइयों सी लम्बी होती रहेंगी
मै भटकता फिरूँगा
लाल ईंटों बनी भीड़ भरी तंग गलियों मे
शोरगुल भरी बसों, व्यस्त ट्रेन-प्लेटफ़ार्मों पर, पार्क की ठंडी भीगी बेंचो पर
मै तलाशा करूँगा तुमसे मिलती जुलती सूरतें
अतीत से बने उजड़े भग्न खंडहरों मे
वार्धक्य के एकांत से सूने पड़े चर्चों मे
करूँगा प्रतीक्षा
और रात खत्म होने से पहले खत्म हो जायेंगी सड़कें
फिर घंटियाँ बजाता गुजरेगा नवंबर तुम्हारे शहर से
थरथरायेंगे गुलमोहर
और त्याग देंगे अपने सूखे पीले पत्ते
चीखेंगे और उड़ते फिरेंगे शहर की हर गली मे दर-बदर लावारिस
अपने आँचल मे समेट लेंगी उनको विधवा हवायेँ
उन्हे आग और पानी के हवाले कर आयेंगीं
तुम्हारे चेहरे की पेंचदार गलियों मे
रास्ता भटक जायेगी उम्र
आजन्म वसंत के लिये अभिशप्त होगी तुम
तुम्हारे शहर के माथे से सूरज कभी नही ढलेगा
बदलती रहोगी तुम शहर की तरह हर दिन-साल
बदलता जायेगा शहर
हर नवागंतुक क्षण के साथ
मगर कहीं
शहर के गर्भ मे दबे रहेंगे मेरे पहचान के बीज
छुपा रहेगा हमारा जरा सा साझा अतीत
तुम्हारी विस्मृतियों के तलघर मे
ट्राय के घोड़े के तरह
और थोड़ा सा शहर
जो चु्पके से बाँध लाया मै
अपनी स्मृति के पोटली मे
बना रहेगा हमेशा वैसा का वैसा/ अपरिवर्तित
गुलमोहर का एक पत्ता
सहेजा हुआ है मेरी उम्र की किताब के सफ़हों के बीच
उम्मीद जैसा थोड़ा सा हरापन बाकी रहेगा उसमे हमेशा
टूटे हुए कप के कोरों पर
अंकित रह जाता है हमेशा
गर्म होठों का आखिरी स्वाद ।
बहुत भावप्रवण रचना ..
ReplyDeleteआजन्म वसंत के लिये अभिशप्त होगी तुम..shaandaar... phir laut ke padhni hogi ..poori kavita
ReplyDeleteमैं इसे फिर से पढूंगा. कई कई बार
ReplyDeleteमै तुमसे कहूँगा विदा
ऐसे जैसे हरापन पत्तों को कहता है
और कातर पत्ता पेड़ को कहता हैं विदा
टूट कर झरने से पहले
जैसे कह दिया गया पूर्व अपूर्व...
ReplyDelete" कवियाए काव्य संग जीने को अभिशप्त ना होती
गजल अवसाद के संग बेहतर ना होती
अभिशाप है शायद कला को "तुम अपने भव्यतम रूप मे उतरोगी जब तुम्हारा रचियता निराश हो आस्मान की ओर झांकेगा"
और फिरे पंक्तिया किन गलियो मे
किस धूल के अंबार में ये मोती मिलते है"
आह!
ReplyDeleteक्या कहें!
कुछ कहते नहीं बनता
तुम आये ही कब!
और जाओगे भी कहां!
कुछ कहा..बहुत दिनो के बाद..यही बहुत है।
बहुत बढ़िया रचना है...आखिरी तीन पंक्तियाँ...
ReplyDeleteटूटे हुए कप के कोरों पर
अंकित रह जाता है हमेशा
गर्म होठों का आखिरी स्वाद ।
बस मजा आ गया..
behad khoobsoorat tasweer kheenchi hai tumne...
ReplyDeleteजैसे गोर्की देखता है रसिया को और आवारा लिखता है। जैसे यरोप के अनगिनत गलियों में सीज रहा रिल्के, जैसे अपने ही शहर में वर्षों बाद लौटा मैं टूरिस्ट बनकर। शहर कैसे रोम रोम में अपनी कील ठोकता है यह कई बार बहुत गहरे में उतर कर बस इस नतीजे पर पहंुचाती है लेकिन क्या वह सब कह दिया जो वाकई था? नहीं। लेकिन हमारे लिए इतना ही बहुत बेकरार कर देने वाला रहा।
ReplyDeleteदोस्त ! कविता हिमालय पर समाधिस्थ सी लगी जिसे उसकी पूरी पर्वतश्रृंख्यलाओं का ज्ञान है। एक पुराना प्रेम है जो छूट आया है और जिसका अंकुरण अब बस दिल में हो चुका है। अंकुरण इसलिए कि इसे बढ़ने नहीं दिया जा रहा। यह जैसा जिस रूप में है सुरक्षित है, पुनः समयातीत भी है।
मैंने कविता कई कई बार पढ़ी और कहना ना होगा कि बेहद प्रभावित हुआ। किसी स्लेट पर खडि़या से लिखे भोर को बुरी तरह से महसूस किया। मैंने देखा कि कविता के अंदर कोई चेहरा किस तरह विकसित होता है और देशकाल से अवगत कराता है। मैंने एक बेहद आकर्षक सा दृश्य भी देखा। अमूमन शहर पर कविताएं कई औचक और भौंचक दृश्यों की बानगी से भरी होती है मगर यहां बेहद एकाग्रता है, जी लेने का सौभाग्य प्राप्त कर साझे अतीत को अब बस स्मरणचित्त में बसा कर निकलने की कामना। पहली से दसवीं तक किसी स्कूल में बिताने के बाद स्कूल से विदा लेना। पाठशाला के वे कोने ज्यादा परेशान करते हैं जो हलचल से दूर था। प्लास्टर झड़ता, जर्जर होती दीवारें....!
"और थोड़ा सा शहर
जो चु्पके से बाँध लाया मै
अपनी स्मृति के पोटली मे
बना रहेगा हमेशा वैसा का वैसा अपरिवर्तित
गुलमोहर का एक पत्ता
सहेजा हुआ है मेरी उम्र की किताब के सफ़हों के बीच
उम्मीद जैसा थोड़ा सा हरापन बाकी रहेगा उसमे हमेशा"
महीनों से अपूर्व मार्का कविता से रू-ब-रू होने की कामना लिए एक लंबा मगर बेहद मीठा इंतज़ार खत्म हुआ। इसने कितना कुछ अंदर भरा है या निकाल रहा है पूछना होगा मंटो से जो कहता था - मैं चलता फिरता बंबई हूं। सवाल जोश मलीहाबादी से भी कर सकते हैं जिसने अलविदा कैसे लिखी। फिर मजाज़ का -"अब इसके बाद सुबह है और सुबह.ए.नौ मजाज़ए हम पर है खत्म शामे गरीबाने लखनऊ....."
हिंदुस्तान में होती आज सुबह सुबह बहुत तोहफा दिया दोस्त। यह कई कविता अब कई कई दिनो तक सामने टंगी रहेगी।
भोर के जामुनी एकांत मे
ReplyDeleteजब रात का थका-हारा उनींदा शुक्रतारा
चाय को छोड़ रही होती है भाप
जैसे कि भोर का अलार्म बजने से ठीक पहले के
स्वप्निल कामनाओं से भरे पवित्र पल
सहेज लेते हैं आखिरी मीठी नींद,
जैसे हरापन पत्तों को कहता है
और कातर पत्ता पेड़ को कहता हैं विदा
टूट कर झरने से पहले
हाँ तुम कहना विदा
कि तीन बार कहने मे ’विदा’
दो बार का वापस लौटना भी शामिल होता है
तह करूँगा अपनी बची उम्र,
जहाँ एकांत के पत्थर पर
मौन की तरह झरती है बर्फ़
जहाँ जोगी सरीखे वीतरागी ओक के वृक्ष प्रार्थनारत
हमारी साझी सड़कों के याद्दाश्त से
एकाकी रह जायेंगे तुम्हारे पद-चिह्न
वार्धक्य के एकांत से सूने पड़े चर्चों मे
करूँगा प्रतीक्षा
रास्ता भटक जायेगी उम्र
आजन्म वसंत के लिये अभिशप्त होगी तुम
शहर के गर्भ मे दबे रहेंगे मेरे पहचान के बीज
छुपा रहेगा हमारा जरा सा साझा अतीत
तुम्हारी विस्मृतियों के तलघर मे
ट्राय के घोड़े के तरह
यह कुछ अद्भुत और कुवांरे से बिम्ब/मेरी पसंदीदा पंग्तियाँ हैं, पूर्णतः एह्साह से मौलिक रूप से उपजी... जिसने "अपने आँचल मे समेट लेंगी उनको विधवा हवायेँ, उन्हे आग और पानी के हवाले कर आयेंगीं" का काम किया है.
एक लड़का अब भी बेंच पर बैठा और बच कर निकलता दिख रहा है जिसके कनपटी से कुछ रिस रहा है यकीनन पसीना नहीं है.... लेकिन गिर रहा है लगातार... अनवरत...
कि जैसे किसी दूरस्थ तारे की ठंडी आभा,
ReplyDeleteकि जैसे कोई समीप का वसंत
कि जैसे अंतस के गर्भगृह का केंद्र...
कविता बिलकुल भीतर से लेकर सुदूर छोरों तक आपको आवृत कर जाती है.
पूरे मन से बधाई.मैं भी कहता हूँ किशोर जी की तरह कि कई कई बार पढूंगा इसे.
मोह में हूँ इसके.
बढ़िया!
ReplyDelete"चला जाऊँगा इतनी दूर
ReplyDeleteजहाँ एकांत के पत्थर पर
मौन की तरह झरती है बर्फ़
रात की काई-सनी पसलियों मे
बर्फ़ के खंजर की तरह धँसती हैं धारदार हवाएँ
जहाँ जोगी सरीखे वीतरागी ओक के वृक्ष प्रार्थनारत
धैर्यपूर्वक करते हैं अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा.."
लगा जैसा कोई अवसाद भरा संगीत हो.. कोई cello पर अपनी धडकनें बजा रहा हो... उतनी ही दूर ही तो जाना है.. सबको..
टूटे हुए कप के कोरों पर
ReplyDeleteअंकित रह जाता है हमेशा
गर्म होठों का आखिरी स्वाद ।
एक ख्वाबगाह से हकीकत तक का सफ़र फिर किसी ख्वाबगाह के मोड पर आकर रुक गया…………बहुत ही खूबसूरत्।
अरसे बाद आमद हुई है......पर खूब हुई है ......
ReplyDeleteवो कौन सी दृष्टि है जो एक कवि को दूसरे कवि से जुदा करती है .वो कौन सी दृष्टि है जो एक कवि को सम्पन्न करती है...........शायद यही दृष्टि है जो शहर ,सभ्यता व्यवस्था, रिश्ते और प्रेम को एक साथ कविता के केन्द्र में रखती है ......इतनी सहजता से कही भी कुछ बिठाया हुआ नहीं लगता .......ओर पूरी कविता में प्यार अपनी उपस्थिति नहीं खोता .....बना रहता है ...
पंकज का कहना ठीक है ......फेवरेट.....
speechless!!
ReplyDeleteइन गरम होठों पे चिपके आखरी स्वाद की बहुत दिनों से प्रतीक्षा थी अपूर्व जी ... अरसे बाद आपको दुबारा पढ़ा है ... वही सोज़ ... गहरा एहसास ... धुंधलके में डूबे शब्द ... अभी तो कई बार पढनी पढेगी ...
ReplyDelete...हम्म क्या कहना है....
ReplyDeleteजानते हैं अपूर्व साहित्य की सबसे मुश्किल विधा मुझे कविता ही लगती है, आधुनिक कविता.
कारण है कि आधुनिक कविता छंद, बहर, तुकांत आदि सभी से मुक्त हो चुकी है,
और फिर तब कैसे पता लगे कि ये एक कविता ही है, इसे गद्य के रूप में नहीं लिखा जा सकत?
दरअसल बंधनों में लिखना आसान होता है क्यूंकि वो बंधन/ वो व्याकरण छोटी से छोटी बात को भी बड़ा बना देते हैं...
ये दरअसल ऐसा ही है कि कोई गीत लिख दिया गया उसे कम्पोज करना, कोई धुन तैयार कर दी उसको बोल देना आसान होता है, उस पर ये भी बता दिया जाए कि गीत आपको अमुक-अमुक सिचुऐशन के लिए लिखना है, तो फिर ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती, हो सकता है मैं उल्टा कह रहा हूँ, लोग ये मानते हों शायद कि बंधनों में लिखना बड़ा मुश्किल होता है.
ग़ज़ल, दोहे, कहानी, नाटक, व्यंग वाकई एक पतली रस्सी में चलने सरीखा है, किन्तु....
आधुनिक कविता एक सपाट रास्ते में चलने सरीखा है, कुछ लोग रास्ते कि चौड़ाई का पूरा फायदा उठाते हैं,
(ब्लॉग जगत में देख लें आप कैसी कैसी कवितायें (?) लिखी गयीं हैं. वर्तमान पत्रिकाएँ भी कोई अपवाद नहीं.)
और कुछ एक काल्पनिक रस्सी बना लेते है. वो रस्सी प्रकट रूप से नहीं दिखती. बहर, छंद, कहानी के शिल्प आदि की तरह, किन्तु कविता के अंदर कहीं होती है. मैं इसे कविता का दिल कहता हूँ, बाकी सारी कवितायें प्लास्टिक कवितायें होती हैं.
इसी अप्रकट रस्सी की बिना पर ही मैं एक कविता को मुकम्मिल कविता* मानता हूँ.
_______________________________________
...मेरे लिए एक आधुनिक कविता हमेशा कौतुहल का विषय रही है.
...और फिर जो चीज़ आपको होंट करती है आप उसके कायल हो जाते हो, कायल हो जाते हो इस पोस्ट सरीखी कविता के.
कविता पहली बार पढ़ने में पसंद आती है...
..दूसरी बार (छोटे मोटे समीक्षक तो हम भी ठहरे वैसे) वाऊ निकलता है मुहं से !
...और फिर तीसरी बार के बाद आप कविता से जुडकर उसे पढते हो. पूरी कविता नहीं उसकी छोटी छोटी सब-पोएम्स .
____________________________________
जब आप कहते हो 'सोच रहा होऊंगा तुम्हारा शहर' तो लगता है गोया शहर की आत्मा से कह रहे हो, अपनी किसी प्रेयसी से नहीं.
आपकी कविता उद्द्द्वेलित, उत्त्तेजित, उदास नहीं करती. आई सी यू में किसी मशीन के ग्राफ की तरह बैकग्राउंड में चलती भर है, टीस दे जाता है उसका खत्म होना.
बाकी सारे सैटप को उस ग्राफ का 'न हो जाना' ओवरराईड कर जाता है.नेपथ्य मुखरित हो जाता है मानो...
...बीप बीप बीप !
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सीरियस नेस अपार्ट: मुझे ये कविता अपने खिलाफ क्षडयंत्र सरीखी लगती है, नहीं तो ठीक उस समय में क्यूँ पोस्ट होनी थी जब आप निर्मल-वर्मा का योरोप और लियो तोलोस्तोय का रशिया 'केवल' पढ़ रहे हों, 'केवल' पढ़ रहे हो नागार्जुन की आम की प्रजातियां और कोई आपके सामने उन्हें चूस रहा हो (सारे आम चूसे नहीं जाते कुछ काट के भी खाए जाते हैं. -नागार्जुन)
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वैसे मेरे पास इस कविता के क्लाइमेक्स के धांसू आइडिये हैं, जो मेरे मौलिक हैं.
१) हम भी तुम्हारे होठों में गर्म स्वाद सरीखे रह जाएंगे ! ओ शहर !
२) हम भी एक दिन जामुन हो जायेंगे. (ये बिम्ब इसलिए कि कविता के प्रारंभ की ओर खींचता हुआ सा लगता है. उसे पुनः पढ़ने के लिए उद्द्वेलित करता हुआ .
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PS: एक मुकम्मिल* कविता. (कविता के बारे में ही कमेंट करने आया था वैसे तो पर, कुछ का कुछ कह गया, कोई नि कविता के बारे में फिर कभी. :-)
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शहर छोड़ती हुई गाड़ी का पीछा
ReplyDeleteसिर्फ़ सड़क की आवारा धूल करती है
कुछ दूर, हाँफ कर बैठ जाने तलक
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उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलती रही वह शाख़ फ़िज़ा में
अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?
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टूटे हुए कप के कोरों पर
अंकित रह जाता है हमेशा
गर्म होठों का आखिरी स्वाद ।
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लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर
यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?
शहर की विडम्बना है ..जाते हुए को रोक नहीं सकता..
ReplyDeleteशहर का स्वभाव है..हर अज़नबी को पनाह दे देता..हम चुपचाप किसी रात शहर को छोड़ जाते के उसे ख़बर भी ना लगे..निकल पड़ते है नये सफ़र को..छोड़ जाते है अपने पीछे बस्तियां तमाम..ज़िन्दगी के हंगामों में भूल जाते है शहर हमको और हम शहरों को..पर बेहरकत रास्ते संभालें रखते है कदमों के निशां ...
PS:बढ़िया अभिव्यक्ति बधाई :)
smpurn rachna bahut hi umda lagiye panktiyaan vishesh bhaaeen...मै समेटूँगा शहर से अपने होने के अवशेष
ReplyDeleteखोलते हुए अपनी आवाज की स्ट्रिंग्स
तह करूँगा अपनी बची उम्र,
जलता रहेगा सपने मे लकड़ी का एक पुराना पुल
देर रात तक
और थोड़ा सा शहर
ReplyDeleteजो चु्पके से बाँध लाया मै
अपनी स्मृति के पोटली मे
बना रहेगा हमेशा वैसा का वैसा/ अपरिवर्तित
गुलमोहर का एक पत्ता
सहेजा हुआ है मेरी उम्र की किताब के सफ़हों के बीच
उम्मीद जैसा थोड़ा सा हरापन बाकी रहेगा उसमे हमेशा.
टूटे हुए कप के कोरों पर
अंकित रह जाता है हमेशा
गर्म होठों का आखिरी स्वाद ।
वेहतरीन रचना अपूर्व जी
शुभकामनाएं
अपूर्व जी
ReplyDeleteकृपया मेरी इस रचना पर अपने सुझाव देने का कष्ट करें .
vikram7: आ,मृग-जल से प्यास बुझा लें.....
इस कविता ने नि:शब्द कर दिया। तारीफ के लिए शब्द नहीं हैं.. लिखा कीजिए, आपके जैसे कवियों की बहुत कमी है यहां..
ReplyDeleteThanks for writing in such an encouraging post. I had a glimpse of it and couldn’t stop reading till I finished. I have already bookmarked you.
ReplyDeleteThe post is handsomely written. I have bookmarked you for keeping abreast with your new posts.
ReplyDeleteIt is a pleasure going through your post. I have bookmarked you to check out new stuff from your side.
ReplyDeleteA very well-written post. I read and liked the post and have also bookmarked you. All the best for future endeavors.
ReplyDeleteThe post is very informative. It is a pleasure reading it. I have also bookmarked you for checking out new posts.
ReplyDeleteशानदार ..इधर आना सार्थक हुआ
ReplyDeleteकविता अपने पीछे एक गहरा सन्नाटा छोड़ जाती है !
ReplyDeletevery interesting blog
ReplyDeletewhat is affiliate marketing in hindi
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