Saturday, September 19, 2009

पहाड़ को नही पता

पहाड़ की असीम उँचाइयों को
बदलते मौसमों की खबर नही होती

पहाड़ को उँचाई से ज़मीन पर कुछ नही दिखता
न पेड़ न इंसान
न फूल न भगवान.
दुनिया से कोई मतलब भी नही रहता पहाड़ को
कपड़े बदलती रहती है दुनिया
बेखबर रहता है पहाड़
कभी थक के जो करवट भी ले लेता है पहाड़
थोड़ी सी और बदल जाती है दुनिया
और पहाड़ को फिर पता नही चलता.

और पहाड़ के तले
छोटे इंसान
अपने छोटे-छोटे सुख और छोटे-छोटे दुःख
जी लेते हैं
अपनी छोटी ज़िंदगी मे
और मर जाते हैं
कोई छोटी मौत
अचल खड़ा रहता है पहाड़.

वक्त ठहर जाता है
पहाड़ की निर्जन चोटियों पर
किसी भटके हुए
अभिशप्त बादल के टुकड़े के मानिंद.
कोई रास्ता नही जाता
पहाड़ के उस पार.

पहाड़ के सीने मे बेचैन साँस सी
उलझ-उलझ जाती है
हाँफ़ती, थकी-माँदी हवा
पहाड़ के जर्जर फेफ़डों मे
कफ़ के थक्के सा ठहर जाता है
एक सख़्त सा पथरीला मौसम.

न जाने किसने
पहाड़ के गले मे खूंटे सा
बाँध दिया है एक सूरज,
दिन भर चक्कर काटता है
पहाड़ के चारो ओर
बैल की तरह,
चुप खड़ा रहता है पहाड़
एड़ियों पर उचकता सुबह का सूरज
क्या देख पाता होगा पहाड़ के पार का अँधेरा?

किसी को नही दिखते
पहाड़ के कलेजे मे छुपे
पहाड़ से मूक दुःख
पहाड़ पर बारिश की तरह.
कितनी गुफ़ाओं मे
सदियों पुराना खोखला अंधेरा
छुपाये रहता है पहाड़,
हाँ, शायद कभी
रात में चीखता हो पहाड़
और खुद से ही टकरा कर
वापस आ जाती हो चीख
उसके पास
गूँजती हुई.
या शायद नदियाँ गवाह होती हों
पहाड़ के फूट-फूट कर रोने की
फिर क्यों छोड देती हैं वो
पहाड़ को
उदास, अकेला !

पत्थर, बर्फ़ और पानी से बनी होती है
पहाड़ की किस्मत.

पहाड़ का कोई दोस्त नही होता है
कोई पहाड़ के कंधे पर
सर रख कर नही रोता है
किससे अपना सुख-दुःख
बाँटता होगा पहाड़?

पहाड़ जैसे लोगों के लिये भी
जिंदगी क्या पहाड़ सी नही हो जाती होगी?

38 comments:

  1. कितना विशाल पर कितना अकेला! पहाड़ पर अच्छी काव्य पंक्तिया हैं.

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  2. बहुत ही लाजवाब रचना, बहुत-बहुत बधाई। नवरात्र की हार्दिक शुभकामनायें...........

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  3. खूबसूरत मानवीकरण किया आपने पहाड़ का।

    अच्छी कविता की बधाई।

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  4. PHAD par itni sundar kavita phli bar pdhi .
    bdhai
    shubhkamnaye

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  5. bahut hi laajawaab rachna.........

    पहाड़ का कोई दोस्त नही होता है
    कोई पहाड़ के कंधे पर
    सर रख कर नही रोता है
    किससे अपना सुख-दुःख
    बाँटता होगा पहाड़?

    bilkul sahi kaha aapne..........

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  6. विगत चौदह-पंद्रह सालों से इन पहाड़ों के दर्द, और जो कुछ भी उकेरा है आपने इस बेमिसाल कविता में देखते आया हूँ।

    बधाई एक अनूठी रचना के लिये!

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  7. शायद नदियाँ गवाह होती हों
    पहाड़ के फूट-फूट कर रोने की
    बहुत मार्मिक है पहाड की यह अंतर्कथा.
    बेहतरीन

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  8. Rachna ki taarif baad main Apoorv ji pehle zaldi zaldi main ek question:
    "कोई पहाड़ के कंधे पर
    सर रख कर नही रोता है
    किससे अपना सुख-दुःख
    बाँटता होगा पहाड़?"

    agar pahad keliye aap question kar rahe hain to kya pehle ki do lines is tarah nahi honi chahiye thi?
    "pahad kisi ke kandhe pe sar rakh ke nahi rota"
    ya phir last 2 lines main 'apna' hat nahi jaana chahiye?
    It's just a question derived from curosity, don't take it as in critisism. After all we are friends....

    ...haan jaisa ki maine pehle kaha poori kavita ke bare main lambi tippani abhi baki hai....

    beside this question kavita bahut-bahut pasand aaiye...

    khaskar gufaaon, baadal, hawa and the best one 'sooraj aur uski aideeon' ka jis tarah aapne pratikatmak chitran aur personification kiya hai wo baat abhi baaki hai dost.....

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  9. दर्पण साहब बहुत सही और जरूरी प्रश्न पूछा है आपने..मैने खुद इसके बारे मे काफ़ी सोचा था..फिर समझ मे आया कि किसी को अपना समझने से ज्यादा सुक़ून इस भावना मे होता है कि कही कोई आपको अपना समझता है और आपसे अपना सुख-दुख साझा करना चाहता है..पहाड़ अपना दर्द तो दरख्तों, नदी या हवा से भी कह सकता है मगर क्या दूसरे भी पहाड़ को अपना समझ कर अपना सुख-दुख बाँट पाते हैं.उसकी विशालता से डरे बिना?..और यहाँ पर अहम्‌ बात यह है कि इतने ऊँचे कंधे होना जो दूसरों की पहुच से बाहर होते हों, कितना अकेलापन दे जाता है!..और यह पहाड़ या पहाड़ सरीखे लोगों की भी फ़ितरत होती है कि वो उसी के सामने खुलते हैं और दर्द बाँटते हैं जो उन्हे वाकई अपना मानता है..ऐसा मुझे लगता है!..यहाँ पर पहाड़ प्रकृति का भी रूपक हो सकता है..
    ..यह मेरे लिये एक बहुत मुश्किल कविता थी जिसकी रचना प्रक्रिया भी कुछ उज़बक सी थी..शायद कुछ सालों बाद लिखता तो बेहतर लिख पाता..मगर यह जानना बहुत सुकूनदेह होता है कि कोई आपकी ऊटपटांग चीजों को अक्षर-अक्षर पढ़ता है और सवाल भी करता हो..आप सभी का कृतज्ञ हूँ..दर्पण जी आपकी विस्तृत समालोचना का इंतजार रहेगा.

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  10. अक अच्छी कविता, और कहना चाहूँगा कि
    जो सुख, खुसी और उम्मीद पहाड़ को चदते वक्त दिल को मिलती है, वह पहाड़ के ऊपर बस जाने से नहीं मिलती !

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  11. वक्त ठहर जाता है
    पहाड़ की निर्जन चोटियों पर
    किसी भटके हुए
    अभिशप्त बादल के टुकड़े के मानिंद.........

    लाजवाब अपूर्व जी ........... बहूत ही कमाल की अभिव्यक्ति है ........ सच कहा जिनका जीवन पहाड़ सा होता है . जो खुद विशाल है .......... उसके अंतस में भी कहीं न कहीं दुःख का संसार है ..........

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  12. पहाड़ का कोई दोस्त नही होता है
    कोई पहाड़ के कंधे पर
    सर रख कर नही रोता है
    किससे अपना सुख-दुःख
    बाँटता होगा पहाड़?

    पहाड़ जैसे लोगों के लिये भी
    जिंदगी क्या पहाड़ सी नही हो जाती होगी?

    इतनी खूबसूरत कविता पढ़ ली कि टिपण्णी करना ही पहाड़ हो गया है
    हूँ.....अपूर्व बहुत अच्छा लिखते हैं आप...
    यह बात सोचनेवाली है कि जब लोग पहाड़ जितने बड़े हो जाते हैं तो उनके लिए बच्चों जैसा रोना कितना मुश्किल होता होगा... है न !!!
    बस लिखते रहिये ऐसे ही....

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  13. पहाड़ के आगे पहाड़ ही होगा न । आभार ।

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  14. phaadh khud akela rahna chahe to kya kijiye...kuchh log phaadh ke jaise zindgee bita dete hai..बेखबर रहता है पहाड़
    कभी थक के जो करवट भी ले लेता है पहाड़
    थोड़ी सी और बदल जाती है दुनिया
    और पहाड़ को फिर पता नही चलता.wo bekhabar aage badne ki dhun me sab ko peechhe chhodh jata hai...apni pahchan to bna leta hai par sabse door ho jata hai...पहाड़ का कोई दोस्त नही होता है
    कोई पहाड़ के कंधे पर
    सर रख कर नही रोता है
    किससे अपना सुख-दुःख
    बाँटता होगा पहाड़?phaadh ke bhi dost hote hai par wo khud ko etna unchha kar leta hai ki koee uske kande pe sar rakh ke ro hi nahi pata.पहाड़ जैसे लोगों के लिये भी
    जिंदगी क्या पहाड़ सी नही हो जाती होगी? shayd nahi wo apni uchayee se khush rahta hai...apki kavita kaisee lagi kah nahi sakti..rone wali koee baat nahi thi esme par der tak roti rahi us phaadh ke liye..

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  15. पहाड़ का कोई दोस्त नही होता है
    कोई पहाड़ के कंधे पर
    सर रख कर नही रोता है
    किससे अपना सुख-दुःख
    बाँटता होगा पहाड़?

    पहाड़ जैसे लोगों के लिये भी
    जिंदगी क्या पहाड़ सी नही हो जाती होगी?
    अपूर्व जी,
    आपकी पोस्ट पर कविताएँ पढ़ी ...बहुत ही गहरेपन लिए हुए है आपकी अभिव्यक्ति.पहाड़ के बिम्ब में एक ऊँचे मुकाम पर पहुंचे व्यक्ति के भावों को अभ्व्यक्ति दी है.
    बधाई एवं आभार.
    प्रकाश.

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  16. वाह वाह ..कहते हैं जब कवि अपनी कल्पना को ....शब्दों के कपडे पहना कर ..उसे करीने से सजा कर तैयार करता है..तो उसकी खूबसूरती देखते ही बनती है...बहुत ही बढिया रचना..

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  17. अपूर्व जी बस इतना ही कहना चाहुँगा लाजवाब लगी आपकी यह रचना । भावनाओं से भरी एक सुन्दर कृति । आभार ।

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  18. FEEDJIT Live Traffic Feed....
    is se meri aane ki barambarta ka pata to chal hi jaat hoga aapko....

    ...thanks ki aapne wo baat clear kar di !!
    ab koi confusion nahi raha...
    ...main kuch zayada hi is post ke antas main ghus gaya tha isliye wo prashn kiya tha...
    ...kya karoon pahadi hoon na....
    kavita ki khaas baat ismein prayog kiye gaye prateek hai...
    do cheezien ek saath chalti hui si lagti hain ek to mano koi pahad aur parkrati ka chitr khaanc raha ho,
    dheere dheer, shilpkaar ki tarah....
    parat dar parat , kavita ki samapti tak ek chitr sa manas patal par uker dena is kavita ki pehli safalta hai....
    ...aur doosri jo pahad ko prateek bana ke baat kehna chahte the wo bhi saaf ho gayi , kabhi baarish ke baad pahad dekhein hai...
    ..bilkul vaise hi...
    Rachna baht hi acchi ban padi hai....
    ...if not best then at least one of the best !!

    abhi ke liye itna hi....
    Shayad dobaara aaon !!
    pehle bhi ek comment kiya tha par "raftaar" main click ho gaya (fidjaat to copy paste karne ke chakkar main) aur wo comment gayab !!
    but this poem is worth while commenting twice, thrice, zillion times !!
    FLAWLESS !!

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  19. लाजवाब है आपकी यह रचना.

    चन्द्र मोहन गुप्त
    जयपुर

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  20. Aapka pahad ko is nazariye se dekhna bahut achcha laga

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  21. Jab mere room partner se mujhe 10 minute milte hain net se hut jaane ke liye to lagta hai ki.....

    वक्त दुश्मन की तरह चलता है

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  22. पहाड़ की असीम उँचाइयों को
    बदलते मौसमों की खबर नही होती

    पहाड़ को उँचाई से ज़मीन पर कुछ नही दिखता
    न पेड़ न इंसान
    न फूल न भगवान.
    दुनिया से कोई मतलब भी नही रहता पहाड़ को
    कपड़े बदलती रहती है दुनिया
    बेखबर रहता है पहाड़
    कभी थक के जो करवट भी ले लेता है पहाड़
    थोड़ी सी और बदल जाती है दुनिया
    और पहाड़ को फिर पता नही चलता.

    आपने पहाड़ का खूबसूरत मानवीकरण किया है...लाजवाब...

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  23. पहाड़ का बिम्ब बहुत खूब इस्तेमाल किया है, बिल्कुल जीवंत कर दिया.

    बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ.

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  24. पहाड़ को एक नए नजरिये से देखने का मौका मिला आज यहाँ आकर.

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  25. pahadon ke dost pahad hi hote hain. aap kis pahad ki baat kar rhe hain jo bastiyon mein rahta hai .....ya phir alag thalag rahta hai.....koi basti se bahar rahane lage tab to wo akela hoga hi.

    Achchhi rachna
    Navnit Nirav

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  26. पुराने पहाड़ को एक नए रूप में देख रही हूँ....

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  27. अरे मै खुद पहाड़ पर रह्ता हूँ पर आपने सब कुछ इतना अंदर तक
    वाह मान गये उस्ताद !!!

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  28. pahaad sa jeevan jeene ki baat bhi kahi gai he apane darshan shstro me/ iska apna mahtva he, apna drashtikon he/ pahad sirf pahaad hota he/ mazboot, kabhi naa jhukane vala/ ab jo esa hota he uske dukh dardo me bhalaa koun sharik hoga? sochiye..
    aapki rachna sachmuch achhi he/ aour mujhe to lagtaa he ki shayad mere padhhne tak aapne koi nai post nahi dali//ji, ab padhh chukaa hu, jaldi kijiye aour ek nai post se hame rubru karaiye/

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  29. किसी को नही दिखते
    पहाड़ के कलेजे मे छुपे
    पहाड़ से मूक दुःख......aapki kalam ne dekha, main abhibhut hui

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  30. & अमिताभ श्रीवास्तव Said...

    ...ji, ab padhh chukaa hu, jaldi kijiye aour ek nai post se hame rubru karaiye

    :)

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  31. WRT to your b'Day Comment:
    Baki baat se to pata nahi par aapki 'Aalsi' wali baat se sehmat hoon,sau fi sadi.
    Club ki membership lene main Self-Shankalu perfectionist aalsi ko kuch discount to denge...

    ...waise member bana to rahein hai...
    Par soch lijiyea, Apki COO ki post ko khatra ho sakta hai...
    :)

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  32. भाई मेरे, कविता लम्बी होते जाने में विषय से भटक जाने का खतरा बना रहता है, आपके साथ भी ऐसा ही हो गया. शुरूआत बहुत अच्छे ढंग से की, पहाड़ को एक सामन्ती प्रवृत्ति के प्रतीक के रूप में लाए जिसे किसी के किसी सुख दुःख से कोई सरोकार नहीं, फिर उसके प्रति आपकी सम्वेदना जाग गयी और अंत से पहले ही आपने उसे आदर्श फ़िल्मी हीरो का दर्जा दे दिया.
    मुझे पता है, आपको यह कमेन्ट बुरा लगा होगा, कमेन्ट बॉक्स में ढेरों तारीफें हैं आपके नाम. मैं मूलतः कविता का आदमी हूँ, २७-२८ वर्षों से. ब्लोगर बने सिर्फ ६ माह गुज़रे हैं. हो सकता है इस फील्ड में आप मुझ से सीनियर हों परन्तु मैं अपने अनुभव, शिक्षा तथा अल्प ज्ञान के माध्यम से जो महसूस कर सका, आपको कमेन्ट की शक्ल में दे रहा हूँ. मेरी बात पसंद न आये तो कमेन्ट डिलीट कर दीजियेगा.

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  33. सभी विद्वान और स्नेही ब्लॉगर बंधुओं का बहुत-बहुत आभार.
    आदरणीय सर्वत जी, ब्लॉग पर आने और बेलाग प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिये बहुत धन्यवाद. मैं लेखन मे अभी नया हूँ. इस रचना के द्वारा पहाड़ के बारे मे कोई सहानुभूति जगाना या भर्त्सना करना मेरा उद्देश्य नही था. मैं पहाड़ के प्रतीक के विविध पक्षों को एक साथ बुन कर व्यंजना शैली मे एक शब्द चित्र पाठकों के सामने रखना चाहता था, बिना अपना कोई निष्कर्ष पाठकों पर थोपे बिना. इसलिये मैने पहाड़ को प्रकृति, समय और मानवीय प्रवृत्ति (यथा व्यर्थ-महानता व दंभ) का रूपक बना कर उसके अलग अलग आयामों जैसे विशालता, सनातनता, एकाकीपन, समय और स्थिति से निरपेक्षता, अपरिवर्तनीयता, वर्गदंभ जैसे रंगों का इस्तमाल कर एक निरपेक्ष तस्वीर खींचने का कच्चा-पक्का प्रयास किया, जिसे देख कर पाठक अपने-अपने दृष्टिकोण से विष्लेषित कर निष्कर्ष दे सकें, abstract पेंटिंग की तरह. जैसे कि कई विद्वान ब्लॉगर मित्रों ने उसको अलग-अलग नजरिये से देखा है जिसे मैं अपनी आंशिक सफ़लता भी मानता हूँ. हाँ, इसके लिये मैने पहाड़ के चार अलग-२ रूपों के लिये चार अलग-२ कविता-खंड लिखे और उनको फिर आपस मे सीने की कोशिश की. इसीलिये कहीं-२ कोहेरेंसी या प्रवाह भी टूटा है और शायद भावों मे अंतर्विरोध भी आ्ये हैं. बस व्यंजना का एक प्रयोग करने का दुस्साहस किया है इस रचना मे. लेखन या ब्लॉगिंग मे आपसे बहुत जूनियर या कह लीजिये दुधमुँहा हूँ अभी. आप जैसे वरिष्ठ साहित्यविज्ञों द्वारा ब्लॉग देखा जाना ही सौभाग्य मानता हूँ. सिर्फ़ तारीफ़ें इकट्ठी करने के लिये यह ब्लॉग शुरू नही किया मैने, बल्कि इस बहाने आप जैसे साहित्यकारों से लेखने की कसीदाकारी सीखने की चाह थी. और आप के जैसी स्वस्थ, निष्पक्ष और समालोचनात्मक टिप्पणियाँ तो जतन से सहेजने के लायक होती हैं, डिलीट करने का तो सवाल ही नही पैदा होता है. उम्मीद है आगे भी आप की खरी-खरी और निष्पक्ष प्रतिक्रियाओं से सीखने को मिलता रहेगा.

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..क्या कहना है!

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