Wednesday, January 6, 2010

गुमशुदा चीजों के प्रति




तमाम गैरजरूरी चीजें
गुम होती जाती हैं घर मे, दबे पाँव
हमारी बेखबर नजरों की मसरूफ़ियत से परे
जैसे बाबू जी की एच एम टी घड़ी
अम्मा का मोटा चश्मा
उनके जाने के बाद
खो जाते हैं कहीं
पुराने जूते, बूढ़े फ़ाउन्टेन पेन, पुरानी बारिशों की गंध
हमारी जिंदगी की अंधी गलियों मे

हर जगह कब्जा करती जाती हैं
हमारी चौकन्नी जरूरतें, लालसायें
अलमारी मे
पीछे खिसकती जाती हैं
करीने से रखी कॉमिक्स, जीती हुई गेंदे,
पुरानी डायरीज्‌, मर्फ़ी का रेडियो
बिस्मिला खाँ

शायद
किसी भूली हुई पुरानी किताब मे
आज भी सहेजे रखे हों
किसी बसंत के सूखे फूल, तितलियों के रंगीन पर, एक मोरपंख,
बचपन के साल
किसी कोने मे औंधा लेटा हो, रूठा हुआ
धूल भरा गंदला टैडी बियर
सालों लम्बी उम्मीद मे
कि कोई मना लेगा कर उसे

या अभी भी किसी बंद दराज मे रखे हों, सुरक्षित
कँवारे डाकटिकट, एंग्री यंग-मैन के स्टिकर्स, टूटी बाँसुरी,
पच्चीस पैसे के सिक्के,
नीली मूँछों वाली मुस्कराती माधुरी दीक्षित,
बहन से छीना बबलगम
ढूँढ लिये जाने की बाट जोहते हुए

शायद
किसी गुफ़ा मे आज भी टंगा हो
सोने के पिँजड़े मे बन्द तोता
जिसमे थी उस भयानक राक्षस की जान
जिससे डरना हमें अच्छा लगता था

दुनियादारी के मेले मे
एक-एक कर बिछड़ते जाते हैं हमसे
बचपन के दोस्त, लूटी हुई पतंगें, जीते हुए कंचे
रंगीन फ़िरकियाँ, शरारती गुलेलें
परी की जादुई छड़ें

मकानों के कंधों पे सवार मकानों के झुण्ड मे
अब नही उझकता है, छत पर से चालाक चंदा
अब नही पसरती आँगन मे, जाड़े की आलसी धूप
धुँधले होते जाते हैं धीरे-धीरे
बाबा की तस्वीर के चटख रंग
दादी की नजर की तरह
हमारी आँखों को परिधि से परे

ख्वाबों के रंग बदलते जाते हैं एक-एक कर
बदलते मौसमों के साथ
बदलती जरूरतों के साथ
और एक-एक कर
आँखों की देहलीज से बाहर चले जाते हैं, सिर झुकाए
गुजिश्ता मौसमों के रंग
कुछ महकते हुए रूमाल
खट्टी इमली का चरपरा स्वाद

हमें घेर कर रखता है टी वी का कर्कश शोर
और हमारे जेहन की साँकलें बजा कर लौट जाती हैं वापस
जाने कितनी पूनम की रातें
पूरब की कितनी वासंती हवाएं
चैत्र की कितनी ओस-भीगी सुबहें
बेसाख्ता बारिशें
लाल घेरों मे कैद रह जाती हैं तारीखें
और बदल दिये जाते हैं कैलेंडर


दरअस्ल
यह विस्मृति का गहरा रिसाइकल बिन है
आपाधापी का गहन ब्लैक-होल
जिसमे समाती जाती हैं सारी गैर-जरूरी चीजें
और हमें खबर नही होती
हमें पता नही चलता
और किसी दिन यूँ ही
विस्मृति के गहरे रिसाइकिल बिन मे
आपाधापी के गहन ब्लैक-होल मे
समा जाएंगे हम भी
और दुनिया को खबर नही होगी
दुनिया को पता नही चलेगा

और बदल दिया जाएगा कैलेंडर.


(हिंद-युग्म पर पूर्व प्रकाशित)

(चित्र आभार-गूगल)

47 comments:

  1. अपूर्व भाई एक बार हिन्दयुग्म पर पढ़ चुका हूँ आपकी यह प्रस्तुति पर यहाँ पढ़ना भी बेहद सुखद रहा कविता के भाव इतने सशक्त है की चाहे जितनी बार पढ़े मन खो सा जाता है एक यादों की गलियों में जहाँ हम कुछ चीज़ें छोड़ आए हैं या उनका स्थान आज की हमारी किसी भौतिक ज़रूरत ने ले लिए..पर यह आज के मनुष्य का स्वभाव है ज़रूरतें बढ़ता जा रहा है और कभी जिसे हम दिल से लगा कर रखते थे उसे नज़रअंदाज कर रहा है...बढ़िया कविता...बहुत धन्यवाद अपूर्व जी!!

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  2. बहुत अच्छी कविता। आपका आभार।

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  3. Sab Kuchh to tum kah gaye...
    kahun bhala main ab kya !

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  4. बहुत गहरे उतारा उस ब्लैक होल में..न जाने क्या क्या खोया है उसमें..

    बहुत उम्दा रचना!!

    बधाई.

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  5. और हमारे जेहन की साँकलें बजा कर लौट जाती हैं वापस
    न जाने कितनी पूनम की रातें
    पूरब की कितनी वासंती हवाएं
    चैत्र की कितनी ओस-भीगी सुबहें
    बेसाख्ता बारिशें
    लाल घेरों मे कैद रह जाती हैं तारीखें
    और बदल दिये जाते हैं कैलेंडर...
    abhi ise padhne mein khoyee hi thi ki ek anahoot sms ne dhyan bhang kiya.sach hi hai ham kudarat se pare kahin aur kurbat badha rahe hain.

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  6. सारे के सारे जादुई शब्द .....सच कहूँ तो मेरी भी कई किताबों के पन्नों ने सहेजे हैं ....मयूर के पंख,तितलियों के पंख और गुलाब के फूल ....पच्चीस पैसे के साथ-साथ ताम्बे का एक पैसे का सिक्का भी ......ये ''नीली मूँछों वाली मुस्कराती माधुरी ''....? हा...हा...हा...मैंने नहीं देखी ......''शरारती गुलेलें....'' आ...हा ....ढेर लगा देते थे मिटटी की गोलियां का और फिर उन्हें आग में तपाकर पक्का और मज़बूत बनाना .....!

    हमें घेर कर रखता है टी वी का कर्कश शोर
    और हमारे जेहन की साँकलें बजा कर लौट जाती हैं वापस
    न जाने कितनी पूनम की रातें

    बचपन के उन्मुक्त पंख .....बुढ़ापे का विछोह .....और आधुनिक युग की आप-धापी का अद्भुत सम्मिश्रण है आपकी ये नज़्म .....!!

    नमन है गुरुदेव......!!

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  7. aapke blog par pahli baar aayi hoon par aapki kavita padh jaane ka man hi nahi ho raha hai. bahut khoobsurat.... zindgai ki jin galiyon se har shkhas kabhi na kabhi guzara hai aapne unhe jeevant kar diya hai. hardik aabhar
    surbhi

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  8. "दरअस्ल
    यह विस्मृति का गहरा रिसाइकल बिन है
    आपाधापी का गहन ब्लैक-होल
    जिसमे समाती जाती हैं सारी गैर-जरूरी चीजें
    और हमें खबर नही होती
    हमें पता नही चलता
    और किसी दिन यूँ ही
    विस्मृति के गहरे रिसाइकिल बिन मे
    आपाधापी के गहन ब्लैक-होल मे
    समा जाएंगे हम भी
    और दुनिया को खबर नही होगी
    दुनिया को पता नही चलेगा

    और बदल दिया जाएगा कैलेंडर."

    Very nice!

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  9. अपूर्व भाई !
    बहुत चीजें संघनित हो गयीं हैं , क्या कहूँ !
    एक विचारक का कथन याद आ रहा है .. ' किसी
    को जीतने का एक तरीका है कि उसके ( देश या व्यक्ति )
    इतिहास को मिटा दिया जाय ..' मामला पहचान मिटने / मिटाने से जुड़ा है
    पराधीनता को व्यापक अर्थ में लें तो 'तमस के अधिकार क्षेत्र' का बढ़ता जाना
    इसी के तहत आएगा .. ऐसे में यही समस्या सताती जाती है ---
    '' ... ... ...
    दरअस्ल
    यह विस्मृति का गहरा रिसाइकल बिन है
    आपाधापी का गहन ब्लैक-होल
    जिसमे समाती जाती हैं सारी गैर-जरूरी चीजें
    और हमें खबर नही होती
    हमें पता नही चलता
    और किसी दिन यूँ ही
    विस्मृति के गहरे रिसाइकिल बिन मे
    आपाधापी के गहन ब्लैक-होल मे
    समा जाएंगे हम भी
    और दुनिया को खबर नही होगी
    दुनिया को पता नही चलेगा

    और बदल दिया जाएगा कैलेंडर.''
    .
    आज के समय में जब 'आख्यान और लेखक के अंत ' की भी
    बातें हो रही हों तब तो चुनौती और जटिल हो जाती है .. आप की
    कविता मुझे चुनौती का सामना करती हुई दिखती है और यही
    वजह है कि 'अलबिदा ब्लोगिंग' को पढ़कर मैं अवाक् रह गया था ..
    .
    राजेश जोशी के अतिरिक्त मुझे इतनी तरल और सहज कविताएँ और
    कहीं नहीं मिलतीं .. वह कविता भी क्या जिसको पढने के बाद
    खोजना पड़े कि कविता कहाँ है !
    दिल में कविता कैसे उतर जाती है , यह आपको पढ़कर महसूस होता है ..
    ............ आभार , बंधुवर !

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  10. ...दरअस्ल
    यह विस्मृति का गहरा रिसाइकल बिन है
    आपाधापी का गहन ब्लैक-होल
    जिसमे समाती जाती हैं सारी गैर-जरूरी चीजें
    और हमें खबर नही होती
    हमें पता नही चलता
    और किसी दिन यूँ ही
    विस्मृति के गहरे रिसाइकिल बिन मे
    आपाधापी के गहन ब्लैक-होल मे
    समा जाएंगे हम भी
    और दुनिया को खबर नही होगी
    दुनिया को पता नही चलेगा

    और बदल दिया जाएगा कैलेंडर.

    ... इस कव‍िता को पहले भी पढ़ चुका था आज भी पढ़ा ... यूंॅ लगा जैसे पहले कम पढ़ा था. अंत की ये पंक्त‍ियां अद्भुत हैं .. इसे नवप्रयोग की तरह ल‍िया जाएगा.
    .
    ..च‍ित्र कव‍िता के भाव के साथ मैच करता है.. बच्चे के हाथ से छूटे गुब्बारे की तरह बचपन और उससे जुड़ी तमाम गैर जरूरी चीजें गुम हो रही हैं।
    .......जन्म लेने के बाद कव‍ि का अपनी इच्छा से कहीं जाना नहीं हो पाता .. यह तो उसके पाठक तय करते हैं क‍ि इसका क्या क‍िया जाय .. पाठक ही प्राणवायु हैं पाठक ही यमराज.
    .. बधाइ.

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  11. धुँधले होते जाते हैं धीरे-धीरे
    बाबा की तस्वीर के चटख रंग
    दादी की नजर की तरह
    हमारी आँखों को परिधि से परे..............
    बेहतरीन और विचारणीय भी.

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  12. अपूर्व .. यह कविता हमारे जीवन की रागात्मकता को बनाये रखने वाले उन सारे बिम्बों को प्रस्तुत करती है जिनकी वज़ह से इस जीवन की अर्थवत्ता है । यह एक बेहतरीन कविता है , इसे किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशन के लिये भेजिये ताकि हिन्दी साहित्य के पाठक भी इसे पढ़ सकें ।

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  13. हम सब दरअसल गलतियों का पुलंदा भर है रोज सुबह कई मुखोटे डाल कर निकलते है ओर दिन को झूठो में लपेट उस पर सच का मुलम्मा चढाकर रात की ओर धकेल देते है उस पर "दुनियादारी ' का ग्लो साइन बोर्ड मजबूती से टिका देते है ,इस बोर्ड का साइज़ साल दर साल बढ़ रहा है

    "हर जगह कब्जा करती जाती हैं
    हमारी चौकन्नी जरूरतें, लालसायें
    अलमारी मे
    पीछे खिसकती जाती हैं
    करीने से रखी कॉमिक्स, जीती हुई गेंदे,
    पुरानी डायरीज्‌, मर्फ़ी का रेडियो
    बिस्मिला खाँ"

    ओर जिंदगी किस कदर भागती है के पीछे मुड़कर देखने पर सिरा गायब मिलता है ... .

    बचपन के साल
    किसी कोने मे औंधा लेटा हो, रूठा हुआ
    धूल भरा गंदला टैडी बियर
    सालों लम्बी उम्मीद मे
    कि कोई मना लेगा आ कर उसे


    जरूरते खवाहिशे है....ओर हर खवाहिश की एक इ एम् आई .......

    हमें घेर कर रखता है टी वी का कर्कश शोर
    और हमारे जेहन की साँकलें बजा कर लौट जाती हैं वापस
    न जाने कितनी पूनम की रातें
    पूरब की कितनी वासंती हवाएं
    चैत्र की कितनी ओस-भीगी सुबहें
    बेसाख्ता बारिशें
    लाल घेरों मे कैद रह जाती हैं तारीखें
    और बदल दिये जाते हैं कैलेंडर


    ये महत्व्कान्शाओ की लडाई है जो मंजिलो का फासला महीनो ...घंटो में तय करना चाहती है ..,जिसके अपने चरित्र है.....अपने तर्क है.... अपने अपने हस्तक्षेप है .जहाँ वे आप से बड़ी है ...समझौतों का गणित अब ओर जटिल हो गया है..... ख्वाहिशे वर्षो के बीच इस कदर उकडूं होकर बैठी है की..... बचपन की उम्र छोटी हो रही है ..... जमीर खेल के मैदानों में छूटने लगा है ....या अब दूसरी शक्ल इख्तियार करने लगा है..... मुझ पर अक्सर इल्जाम लगता है के तुम्हे ज्यादा पसंद क्यों करता हूँ.....क्यों ?
    शायद ये लाइने उसका जवाब है........



    दरअस्ल
    यह विस्मृति का गहरा रिसाइकल बिन है
    आपाधापी का गहन ब्लैक-होल
    जिसमे समाती जाती हैं सारी गैर-जरूरी चीजें
    और हमें खबर नही होती
    हमें पता नही चलता
    और किसी दिन यूँ ही
    विस्मृति के गहरे रिसाइकिल बिन मे
    आपाधापी के गहन ब्लैक-होल मे
    समा जाएंगे हम भी
    और दुनिया को खबर नही होगी
    दुनिया को पता नही चलेगा

    और बदल दिया जाएगा कैलेंडर.

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  14. This comment has been removed by the author.

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  15. सुबह से गुरिल्ला वार के मूड में घात लगाये बैठा था... सही वक़्त है... आकाशवाणी सुनी .)

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  16. सुबह सुबह पढ़ ली थी सोचा कमेन्ट बाद में करूँगा.. अच्छा हुआ.. अनुराग जी का कमेन्ट जो पढने को मिला.. कुछ कमेंट्स पोस्ट को आगे ले जाते है जैसे खुद तुम्हारे अपूर्व..
    बचपन को इत्र की डिब्बी में रखा होगा तुमने शायद.. बाहर निकलते ही जो खुशबु फैली है फज़ाओ में कि बस पूछो ही मत.. जियो यार..!!

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  17. अपने अंदाज़ में बात तो बहुत गहरी कह दिन आपने अपूर्व... मैं किस-किस लाइन को लूँ... परफेक्शनिस्ट की तरह देर से आये पर दुरुस्त आये...

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  18. और किसी दिन यूँ ही
    विस्मृति के गहरे रिसाइकिल बिन मे
    आपाधापी के गहन ब्लैक-होल मे
    समा जाएंगे हम भी
    और दुनिया को खबर नही होगी
    दुनिया को पता नही चलेगा
    और बदल दिया जाएगा कैलेंडर....
    दुनिया के दस्तूर को ........ जीवन के क्रम को जारी रखने की जुगत में हर कोई ख़त्म हो जाता है ........... बहुत से लोगों ने इस बात को अपने अपने तरीके से रखा है पर आपका अंदाज़ बहुत ही जुदा है अपूर्व जी .......... ऐसे ही लिखते रहें ......

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  19. सोचता हूँ कवि मामूली सी लगने वाली चीज़ों के प्रति कितना मोहाविष्ट रहता है,कितनी सतर्कता से ब्योरों को दर्ज करता है और बदलते वक़्त की नब्ज़ को पकडे रहता है !
    "धूल भरा गंदला टैडी बियर
    सालों लम्बी उम्मीद मे
    कि कोई मना लेगा आ कर उसे"
    अद्भुत संवेदना के साथ लिखी गयी पंक्तियाँ.पता नहीं क्यों मुझे दुनियावी छद्म की दीवार तड़कती लगती है इन पंक्तियों के आगे. जैसे एक निर्दोष मासूमियत कर सकती है सदियों का इंतज़ार.

    सन्दर्भ के लिए ये प्रयोजन वादी लाइन रख रहा हूँ जिसके विरुद्ध ये कविता है-
    "अगर कोई चीज़ आपके इस्तेमाल में ६ महीनों से नहीं आ रही है तो उसे फेंक सकते हैं."

    गुमशुदा अच्छी कविताओं के दौर में मिली है ये..

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  20. चुप रह जाना इस कविता की उपेक्षा मानी जायेगी और कुछ कहना हिमाकत...!

    क्या करुं इस उलझन का। फिलहाल तो शुक्रिया से काम चला रहा हूँ। शुक्रिया इसलिये कि कविता पर से विश्वास उठने नहीं दे रहो तुम। फिर से आऊंगा डूब कर कुछ कहने।

    फिलहाल एक नजर इधर डालना। तुम कुछ कहोगे यहां तो अच्छा लगेगा:-
    http://ek-ziddi-dhun.blogspot.com/2010/01/blog-post_7845.html

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  21. धूल भरा गंदला टैडी बियर
    सालों लम्बी उम्मीद मे
    कि कोई मना लेगा आ कर उसे"

    पूरी कविता अद्भुत संवेदनाओं से भरी हुई है..गहरे तक स्पर्श करती है.

    गौतम भाई से सहमत हूँ.
    .चुप रह जाना इस कविता की उपेक्षा मानी जायेगी और कुछ कहना हिमाकत...!

    ऐसा कैसे लिख लेते है..!
    अद्भुत और लाजवाब कर देने वाला.

    हाँ ,जितनी श्रेष्ठ कविता है शीर्षक उतना ऊंचा नहीं ठहर पाता है.शीर्षक से यह पता नहीं चलता है कि एक अत्यंत श्रेष्ठ कविता उसके साए में रख दी गयी है.

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  22. हमें घेर कर रखता है टी वी का कर्कश शोर
    और हमारे जेहन की साँकलें बजा कर लौट जाती हैं वापस
    न जाने कितनी पूनम की रातें
    पूरब की कितनी वासंती हवाएं
    चैत्र की कितनी ओस-भीगी सुबहें
    बेसाख्ता बारिशें
    लाल घेरों मे कैद रह जाती हैं तारीखें
    और बदल दिये जाते हैं कैलेंडर


    great.....

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  23. तमाम गैरजरूरी चीजें कभी जरूरी हुआ करती थी,वक़्त वक़्त की बात है.जो आज जरूरी है कल जरूरी नही रहे शायद.हमारी जिंदगी की अंधी गलियों मे कब्ज़ा जमा लेती ही कई और चीज़े,धूल भरा गंदला टैडी बियर सच में इसी उम्मीद से पड़ा है अब भी कि जो उसके बिना इक पल भी नहीं रहता था वो आके मना लेगा उसे.मन के किसी स्टोर रूम मेंपड़ी रहती है कहानिया राक्षस की,राजकुमार की.दुनियादारी के मेले मे याद ही रह जाती है दोस्तों की बस.अब भी उझकता है छत पर से चालाक चंदा बस देखने की फुर्सत नहीं रही हमको.लाल घेरों मे कैद रह जाती हैं तारीखें कुछ इक और साल दर साल बदल दिये जाते हैं कैलेंडर.

    और किसी दिन यूँ ही
    विस्मृति के गहरे रिसाइकिल बिन मे
    आपाधापी के गहन ब्लैक-होल मे
    समा जाएंगे हम भी
    और दुनिया को खबर नही होगी
    दुनिया को पता नही चलेगा

    और बदल दिया जाएगा कैलेंडर.
    बस रोज़ की आपाधापी में तमाम जरूरी बातो के साथ ये भी इक गैरजरूरी बात याद नहीं रहती.जो आज है वो कल नहीं रहेगा आज की जरूरी चीज़े कल गैरजरूरी हो जायेंगी.

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  24. क्या लिख दिया यार!! मेरे पास तो जैसे शब्द ही नहीं रह गए कुछ कहने के लिए. बहुत..बहुत बहुत ही अच्छा, अच्छा शब्द भी हल्का लग रहा है. अपनी उम्र से भी बहुत आगे जा कर लिखा है. ये लेखन बना रहे यही मेरी कामना, दुआ, प्रार्थना है.
    नव वर्ष की मंगल कामनाओं के साथ बहुत कुछ ले कर वापस जा रहा हूँ.

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  25. ye bhi aapke samay ki rachna se kam nahi..alag andaaz, bemisaal.maano poora BHOOT khadaa kar diyaa ho.(BHOOTKAAL) ateet se latakata huaa chhor..kese gumshudaa ho paayegaa ji.?

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  26. आपकी इस गद्यनुमा कविता की भावनाओं से पूरी तरह इत्तिफाक रखता हूँ। आपने पुराने दिनों की उन बेशकीमती चिजों का जिक्र कर दिया जो उस वक़्त ये अहसास जताती थीं कि इनसे ज्यादा prized possession कुछ और हो ही नहीं सकता।

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  27. nostalgic kar dete ho har baar... mechanical engineer ki tarah puri stress-strain or failure studies karke kavita release karte ho shayad aap...

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  28. भाई,
    आपकी ये कविता ब्लॉग पर आते ही पढ़ गया था; अपने-आपको सहेज रहा था दो दिनों से, कुछ लिखने के लिए; सोच रहा था, कैसे सम्हाल और बचा सकूँगा ज़रूरी चीजो को, गुमशुदा की फेहरिस्त में जाने से ? अनंत काल-प्रवाह में ये संभव है क्या ?
    पूज्य बाबूजी का पुर्जा-पुर्जा सम्हालने वाला मैं कितना असहाय हूँ ? उनका धोती-कुरता, चश्मा, पीतल का बड़ा-सा पीकदान, चमरौंधा जूता, खडाऊं, पांडुलिपियाँ, प्रशस्ति-पत्र, शाल-दुशाले, ताम्र-पत्र और अज्ञेयजी की जर्मनी से लायी शेफर्स पेन--ये सब जाने किस हाल में पटना में पड़ा है ! मेरे जैसे संवेदनशील व्यक्ति के मन पर ये बोझ निरंतर बना रहा है !
    आपकी ये रचना मन के बहुत करीब आ खड़ी हुई है; मेरी संवेदनाओं को दुलराती हुई और मन के आईने पर पड़ी धूल हटाते हुए सबब भी बायाँ karti है--
    'हमारी चौकन्नी जरूरतें, लालसायें
    अलमारी मे....'
    phir भी purani barish की gandh kaleje में bhari हुई है, wah nahin jaati ...
    और मैं आपकी pankti-pankti में us gandh को shiddat से inhale kar रहा हूँ ...
    sapreet--आ.

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  29. अच्छी कविता...
    पर अपूर्व से अपेक्षा भी तो कम नहीं...
    चवन्नी से याद आ गयी इकन्नी, दुअन्नी, पांच पैसा, दस पैसा...सब अल्युमुनियम वाले
    कोई कविता induce कर रही है मेरे मन में, आपकी ये कविता...
    शायद किसी दिन, किसी समय...

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  30. सच में! कलेंडर बदल जाएगा... किन्तु नहीं बदलेगा इस कविता का सच!

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  31. ek jaadu... ek nasha.. ek purana bhoola bisra vividh bharti pe suna ek geet... raat ke gehre sannate mein 11:30pm kahin ek raag..dil ka har ek kona choota hua sa..

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  32. तमाम गैरजरूरी चीजें
    गुम होती जाती हैं घर मे, दबे पाँव
    हमारी बेखबर नजरों की मसरूफ़ियत से परे
    अपेंडिक्स जैसे , इन्हें पता नहीं शायद इंसान गाय नहीं अब.
    जैसे बाबू जी की एच एम टी घड़ी


    हल्द्वानी के आगे २-३ किलोमीटर दूर रानीबाग है, वहीँ पे तो बनती 'थी' HMT घड़ियाँ. अब जाके देखा... नज़दीक से, धीरे धीरे दूर से....
    और फिर .....

    ....
    सफ़र का फलसफा यही है की नज़दीक की चीज़ें ज़ल्दी बीत जाती हैं , जो जितनी दूर हैं वो उतनी देर.

    पहाड़ के सफ़र का फलसफा इससे भी कुछ आगे का है, नज़दीक थी, जो ज़ल्दी बीत गयी, या बिता दी गयी, या हम उन चीज़ों से बीत गए... (' अमृता प्रीतम' के तीन यथार्थ की तरह, ये भी सही, ये भी सही, ये भी सही।)
    ...सर्पीली पहाड़ियों से होते हुए अब दूर हो गयी, और अब देर तक हैं, ...

    यादें भी अजीब होती हैं, वो 'oak cask' में mature की हुई फ्रेंच Wine की तरह ।
    दुनियादारी के मेले मे
    एक-एक कर बिछड़ते जाते हैं हमसे
    बचपन के दोस्त, लूटी हुई पतंगें, जीते हुए कंचे
    रंगीन फ़िरकियाँ, शरारती गुलेलें
    परी की जादुई छड़ें

    ये ज़रूर माजी में से गिरे कुछ सूख चुके लम्हों के ऊपर 'समय' के चलने की आवाज़ है, साला, धीरे क्यूँ नहीं चलता ये? दबे पाँव ? यूँ की पुराने लम्हों का यूँ ही पड़े रहने का भ्रम हो, यूँ की वो 'स्कूल बैग' वाला ख्वाब फिर न छूटे?

    यूँ की कच्ची नींद है बस ये न टूटे.

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  33. शायद
    किसी गुफ़ा मे आज भी टंगा हो
    सोने के पिँजड़े मे बन्द तोता
    जिसमे थी उस भयानक राक्षस की जान
    जिससे डरना हमें अच्छा लगता था

    हल्की सी abstractness के साथ लिखी गयी मेरी सबसे प्रिय लाइन, जो शायद Explanation से आगे की चीज़ है, बस एहसासों की तरह. या....
    शब्दों के बीच के अंतर के मतलब की या किसी की ख़ामोशी...
    ...बस बादलों में छुपते मिलते चाँद की तरह.
    मैंने अपने हिस्से की रौशनी निकल ली उस 'गुफा' में से....

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  34. "ये ज़रूर माजी में से गिरे कुछ सूख चुके लम्हों के ऊपर 'समय' के चलने की आवाज़ है, साला, धीरे क्यूँ नहीं चलता ये? दबे पाँव ? यूँ की पुराने लम्हों का यूँ ही पड़े रहने का भ्रम हो, यूँ की वो 'स्कूल बैग' वाला ख्वाब फिर न छूटे?

    यूँ की कच्ची नींद है बस ये न टूटे. "

    प्रिय दर्पण, इन पंक्तियों के लिये शुक्रिया..यदि गुलज़ार साहब इन पंक्तियों को वर्टिकल फ़ार्म मे लिख देते तो क्या इसे हम कविता मान लेते?
    :-)

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  35. उठता है, गिरता है
    नाम
    ज्वार भाटा है
    अपने ही जिस्म में यह समंदर घुमड़ता है....

    बताशे...

    एक समय मानता था की घर उसी को कहते हैं जहाँ नियमित समयांतराल पर दाल-चावल घटता रहे... पर अब ज्यादा डरपोक हो गए हैं..... जिगर नहीं रहा दोस्त... और शराब ने हमें बर्बाद कर डाला... अंजू, सुन रही हो...

    http://apnidaflisabkaraag.blogspot.com/2009/09/blog-post.html

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  37. आप की लिखी यह कविता पढ़ चुकी हूँ ,लेकिन टिप्पणी नहीं कर पाई थी आज भी समझ नहीं आ रहा है की क्या लिखूं.
    बस इतना ही कि ..
    वाह!
    बहुत ही बेहतरीन कविता लिखी है!
    लिखते रहीए.शुभकामनाएँ

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  38. देर रात गये पेट की भूख मिट जाने के बाद कविताई भूख को मिटाने की तलाश शुरु होती है और पता मिलता है "दफ़्तन" का...एक विशिष्ट कविता के बाद भी कमबख्त भूख जब कम नहीं होती और चंद नयी टिप्पणियां हाजमोले के शक्ल में उल्टा तलब और बढ़ाती है तो मेरे जैसा निरीह पाठक क्या करे..."ख्वाबों के रंग बदलते जाते हैं एक-एक कर/बदलते मौसमों के साथ/बदलती जरूरतों के साथ"

    यूं ही सोचने लगा कि कितने दिनों में लिखी होगी तुमने ये कविता। एक बचपन से तो लिखते नहीं आ रहे...शब्द-शब्द, पंक्तियां-पंक्तियां सहेज-सहेज कर?

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  39. यार ये दफ़्तन का वजन क्या होगा?

    दफ़्‍अतन...हां, याद आया गुलाम अली ने गाया तो है "चुपके-चुपके रात दिन" में...212..यस, गौट इट!

    शब्बा खैर!

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  40. कविता को बहुत बार पढ़ा है न समीक्षा के लिए न किसी आलोचना के लिए, पढ़ा है अपने सुख के लिए. परमानन्द...

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  41. बेहद भली सी इस कविता पर एक लम्बी और सार्थक बात कहना चाहूंगी ....इसके लिए थोड़ा वक़्त दो, लेकिन इसके पहले अपनी पोस्ट पर तुम्हे देखना चाहती हूँ ...नव वर्ष की शुभकामना के साथ

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  42. aaina wahi rehta hai, chehre badal jaate hain...bas kahin soyee alsayee padi dopeahr ko jaga gayi aapki yeh rachna..

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  43. बहुत अच्छी कविता। आपका आभार।

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  44. शायद
    किसी गुफ़ा मे आज भी टंगा हो
    सोने के पिँजड़े मे बन्द तोता
    जिसमे थी उस भयानक राक्षस की जान
    जिससे डरना हमें अच्छा लगता था


    aatma gahrai tak sukhi ho gayi bhai, aashish duayein..dhanyawaad sab le lo ab aap

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  45. aisa laga jaisa ghar ka store khula ho, aur hum apni purani drawing books,chhote chhote chaye ke cup plates,abhrak ke patthar ka collection le kar baith gayein ho...
    wahan le jane ke liye thanks.

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